अकस्मात मीनू के जीवन में कैसी दुविधा आन पड़ी????जिन्दगी में अजीब सा सन्नाटा छा गया.मीनू ने जेठ-जिठानी के कहने पर ही उनकी झोली में खुशियाँ डालने के लिए यह कदम उठाया था लेकिन...पहले से इस तरह का अंदेशा भी होता तो शायद....चंद दिनों पूर्व जिन ख्यावों में डूबी हुई थी,वो आज दिवास्वप्न सा लग रहा था....
तेरे पर्दापर्ण की खबर सुन किलकारी सुनने को व्याकुल थे.....तब तेरे अस्तित्व से वो अपरिचित थे तो जिठानी जी की दुःख वेदना आनन्द में अवतरित हो गई थी लेकिन लिंग परीक्षण दौरान तेरी पहचान सामने आते ही दोनों के चेहरे मुरझा गये.जिठानी जी की ममता तो जाग उठती....लेकिन जेठ जी अपनी बात पर अडिग रहे.उनके फैसले ने मीनू को मंझधार में छोड़ दिया....
हताश हो...मीनू भाव शून्य चेहरे से अपने भीतर पनपती जिन्दगी की सांसों को शांत करने का निर्णय ले,अस्पताल के अंदर दाखिल हुई.भीतर ही भीतर हिचकियाँ समेटती लेकिन आँखों में नदियाँ उमड़ने लगती.उसके अस्तित्व मिटने के भान से असीम वेदना से कराह उठी....अनसूखे अंतर्मन की बैचेनी समन्दर के ज्वार-भाटे की तरह उफनती-डूबती...दर्द को अंदर समेटते हुए निढाल सी ओपरेशन टेबिल पर पसर गई.....
तभी जडवत.हुए शरीर में फड़फड़ाहट हुई ,मेरे अंश को मुझसे अलग करने का उपक्रम....मैं कैसी माँ हू....अपने ही अंश को अपने हाथों में लेना तो दूर..उसे देख भी नही पाऊँगी....इसी अनुभव में मीनू का दिल दहल उठा..दिलोदिमाग के झंझावत..से अपने को मजबूत करती हुई,संकल्प लेती हुई एक पल को सोचने लगती...अगर तू आ भी गई..तो वो सारी सुख-सुबिधायें ना दे पाऊँगी..जिनकी तू हकदार हैं.मन ममत्व से भर गया....जैसे दो पल रहे हैं वैसे तीसरा..भी सही...
लेकिन घर कीं स्थिति का भान होते ही क्षणिक भर में ही किया संकल्प सूखे पत्ते की तरह त्रण- त्रण होकर छितर-बितर गया....सपनों की, विचारों की लड़ियाँ टूटकर बिखर गई....क्या करती????तेरी हत्या सिर मत्थे मढ़ रही थी...या मढी जा रही थी....एक बेटी कितने नाजों से पल रही और दूसरी इस तरह......
हाथ फेरते हुए जैसे आखिरी बार सहलाते......हुए....मीनू अंदर से तडप उठी....मेरी बच्ची मुझे माफ़......कर देना.लाख मिन्नते करने पर भी तुझे अपनाने वाले चिकने घड़े से बन गये....की गई खुशामदे....पानी की बूंदों की तरह...बह गई..अंतर्विद्रोह आंसू के रूप में फूट पड़ा.इसी अन्तर्द्वन्द में कब अचेत हो गई ,पता ही नही चला...
होश आया तो जेठानी जी हाथ थामे हुए.....सांत्वना देते...शायद कुछ कहने को खुला मुंह अधखुला... रह जाता..मन ही मन बुदबुदाकर रह जाती...कही ना कही मीनू की इस हालत का कसूरवार खुद को ठहरा रही थी.शायद....अपने फैसले पर पश्चाताप...भी हो रहा हो..कि अपने आंगन में बच्चे की किलकारियां सुनना थी,फिर वो बेटा होता या बेटी....माँ शब्द की गूँज से कानो में मिठास घुलती....पर अब....
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
अच्छी लघुकथा है आदरणीया बबिता जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए “,,,,,” इन चिह्नों का लघुकथा में अनावश्यक एवं अतिशय प्रयोग है। देखिएगा। सादर।
मुहतरमा बबीता गुप्ता जी आदाब,लघुकथा का प्रयास अच्छा है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
जनाब तेजवीर सिंह जी की बातों का संज्ञान लें ।
एक निवेदन ये था कि रचना के टाइटिल के साथ रचना की विधा भी लिख दिया करें ।
आदरणीया बबीता जी बहुत संवेदनशील विषय को उभारा है अपने लघु कथा के माध्यम से...हार्दिक बधाई
आदरणीया जी सृजन भाव पूर्ण है लेकिन शाब्दिक त्रुटियों के कारण भाव अपने पूर्ण प्रवाह से पाठक को प्रभावित नहीं कर पाते। वैसे इस प्रयास हेतु हार्दिक बधाई।
आदरणीय तेजवीर सर जी,नमस्कार,धन्यवाद गलतियों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए,जल्दी पोस्ट करने के चक्कर में चेक नही किया,अभी सुधर करके पोस्ट करती हूँ.
आदरणीय बबिता जी,आपकी लघुकथा के भाव बेहतरीन हैं लेकिन टंकण और वर्तनी की अशुद्धियों ने लघुकथा का मजा ही बिगाड़ दिया। कृपया इनको शुद्ध कीजिये। सादर ।
आदरणीया नीलम दी, नमस्कार! हार्दिक आभार.
आदरणीया बबिता गुप्ता जी, नमस्कार। समाज की कैसी विडम्बना है कि जो कन्या भ्रूण बड़ा होकर पुरुष को संसार में लाता है, उसी कन्या भ्रूण को पुरुष संसार में आने नहीं देना चाहता। धिक्कार है ऐसे समाज को। अच्छी लघुकथा हुई है। बधाई।
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