२२१ १२२२ २२१ १२२२
जितना भी सनम माँगा यूँ हमने है कम माँगा
मरने की नहीं हिम्मत जीने का ही दम माँगा।१।
होते ही सवेरा नित साया भी डराता है
घबरा के उजाले से यूँ रात का तम माँगा।२।
सुनते हैं सभी कहते कम अक्ल हमें लेकिन
खुशियों में अकेले थे इस बात से गम माँगा।३।
चौपाल से बढ़ शायद महफूज लगा हो कुछ
ऐसे ही नहीं उसने रहमत में हरम माँगा।४।
ऐसे ही नहीं शबनम पड़ जाती है रातों को
धरती का रह इक कोना बीजों ने है नम माँगा।५।
जीवन या मरण इस दर अपनी ये नहीं फितरत
इस बुत से कसम खायी उस बुत से करम माँगा।६।
मजबूर बड़ा उससे है कौन "मुसाफिर" कह
जो मौत के साये से जीने का भरम माँगा ।७।
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी आदाब,
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह का संज्ञान लें ।।
आद0 लक्ष्मण जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने। शैर दर शैर मुबारकबाद कुबूल करें। माँगा शुद्ध शब्द है। कृपया वर्तनी सही कर लीजिए।
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के व नेक सलाह के लिए हार्दिक आभार ।
आ. नीलम जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
ग़ज़ल में जहाँ जहाँ 'मागा' शब्द आया है उसे "माँगा" कर लें।
5वें शैर के सानी में 'रह' को "हर" कर लें ।
छटे शैर में क़ाफ़िया दोष है सहीह शब्द है "रह्म" इसकी जगह "करम" कर सकते हैं ।
आदरणीय लक्षमण धामी जी, नमस्कार । बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल हुई है। मुबारकबाद स्वीकार करें ।
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