बड़े जतन से सिले थे’ माँ ने, वही बिछौने ढूँढ रहा हूँ
ढूँढ रहा हूँ नटखट बचपन, खेल-खिलौने ढूँढ रहा हूँ
नदी किनारे महल दुमहले, बन जाते थे जो मिनटों में
रेत किधर है, हाथ कहाँ वो नौने-नौने ढूँढ रहा हूँ
विद्यालय की टन-टन घंटी, गुरुवर के हाथों में संटी
बरगद वृक्ष तले भंडारे, पत्तल दौने ढूँढ रहा हूँ
डाँट-डपट सँग रूठा-राठी, मीठी-मीठी लोरी माँ की
बुरी नजर का काला धागा, कहाँ डिठौने ढूँढ रहा हूँ
चार-चार दिन की बारातें, पंगत में गारी से बातें
मधुर मिलन वो हँसी-ठिठोली, स्वप्निल गौने ढूँढ रहा हूँ
कल-कल करते झरने नदिया, साँझ समय बहती पुरवाई
वन में निडर कुलाँचें भरते, वो मृग-छौने ढूँढ रहा हूँ
सारा जीवन बीत चला है, अमृत का घट रीत चला है
सौंधी-सौंधी माटी का घर, स्वप्न सलौने ढूँढ रहा हूँ
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
वाह बहुत खूब सर ... ..
आदरणीय बसंत कुमार जी, नमस्कार। बचपन की खोज में डूबी बहुत ही सूंदर रचना। प्रस्तुति के ली हार्दिक बधाई।
सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई सादर |
आदरणीय बसंत कुमार जी आदाब,
बचपन, नदी,माँ , खिलौने गुड्डे-गुड़ियाँ सबकुछ समा दिया बेहतरीन शे'रों । लाजवाब ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद । बाक़ी गुणीजन अपनी राय साझा करेंगे ।
आ. भाई बसंत जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
सारा जीवन बीत चला है, अमृत का घट रीत चला है
लेकिन मैं तो वही पुराने, स्वप्न सलौने ढूँढ रहा हूँ
Hr koi miss kr rha hai vo bita smay
हार्दिक बधाई आदरणीय बसंत कुमार जी।बढ़िया गज़ल।
डाँट-डपट सँग रूठा-राठी, माँ की लोरी मीठी-मीठी
बुरी नजर का काला धागा, और डिठौने ढूँढ रहा हूँ
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