"मां, मुझे क्षमा कर दो और घर चलो!"
"क्षमा क्यों? तुमने भी वही किया जो सभी मर्द ऐसे हालात में करते हैं! ... यह बात और है कि तुम इतनी कम उम्र में पूरे पुरूष बन गये और एक विधवा पर वैसे ही बोलों के पत्थर फैंकने लगे!"
"लेकिन मेरे बड़े भाई ने हमेशा तुम्हारा ख़्याल रखा, तुम्हारा ही बचाव किया न!"
"हां, किया! ... सब कुछ के लिए किया! .. नेक भाई, बेटे या नेक देवर की तरह नहीं किया!तभी तो हार कर इस 'लिव-इन-रिलेशनशिप' को स्वीकार कर चैन से यहां हूं !"
"लेकिन रिश्तेदारों और समाज के पत्थर तो अब भी तुम पर पड़ रहे हैं न 'भाभी मां'!"
"पत्थरों के ज़ख़्म इस नेक इंसान के सुगंधित पुष्पों से ठीक भी तो होते रहते है न!"
"तो फिर तुम इनसे ही विधिवत दूसरी शादी क्यों नहीं कर लेतीं?"
"लिव-इन-रिलेशनशिप में ऐसा कहां हो पाता है रे! ये भी तो अमीर मर्द है न! ..इसे मालूम है कि इस देसी विधवा के दिल पर अभी भी मर चुके पति की गहरी छाप है! शरीर तो ...!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
मेरी इस प्रविष्टि पर समय देकर टिप्प्णियों द्वारा अनुमोदन और विचार साझा करने हेतु और पुनः स्नेहिल हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब डॉ. आशुतोष मिश्रा साहिब , मुहतरमा नीलम उपाध्याय साहिबा , मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब , मुुुहतरमा अपर्णा शर्मा साहिबा, मुहतरमा बबीता गुप्ता साहिबा और मुहतरम जनाब तेजवीर सिंह साहिब।
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आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी इस बिचारोतेज्जक रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, नमस्कार । अच्छी लघुकथा हुई है। प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार करें ।
दुनियां के तानों से व ओरो से अपनी सुरक्षा के लिए वेबशी में बनाए रिश्ते पर समाज की छींटा कशी तो होती ही है लेकिन औरत अंदर ही अंदर कितने जद्दोजहद में जीवन गुजारती है, इस पर किसी की नजर नहीं जाती।बेहतरीन रचना, समाज की इस ज्वज्वलं समस्या पर, बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय सर जी.
एक भारतीय पतिव्रता स्त्री का गहन समर्पण और समाज के लांछनो,परिवार के तानों से बचने विवशता में अपनाया गया रिश्ता उसकी पनाहगाह बन जाता है।
बहुत सशक्त कथानक है जिसे प्रभावी रूप से शब्दों में पिरोया गया है। सादर बधाई आपको
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,बहुत उम्दा लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी जी।समाज की एक ज्वलंत समस्या को नये दृष्टिकोण से परिभाषित करती बेहतरीन लघुकथा।
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,
एक रिश्ते से निकलकर या विवशता के बाद जब दूसरा रिश्ता स्वीकार किया जाता है तो समज बिरादरी के तानें तो सुनने को मिलेंगी भी । एक औरत पर क्या गुज़रती है यह तो वही जानती है । हमारे पारंपरिक समाज में "विवाहहेतर संबंध"को इतनी सामाजिक मान्यता नहीं मिली है । बहुत ही विचारोत्तेजक कथा । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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