लोकतंत्र
अर्जी लिए खड़ा है बुधिया,
भूखा प्यासा खाली पेट.
राजा जी कुर्सी पर बैठे,
घुमा रहे हैं पेपरवेट.
कहने को तो लोक तंत्र है,
मगर लोक को जगह कहाँ है.
मंतर सारे पास तंत्र के,
लोक भटकता यहाँ-वहाँ है.
रोज दक्षिणा के बढ़ते हैं,
सुरसा के मुख जैसे रेट.
राजकुँवर जी की मर्जी है,
टोपी पहनें या फिर पगड़ी.
सारी परजा बाँट रखी है,
कुछ है पिछड़ी, कुछ है अगड़ी.
बारी-बारी से करते हैं,
मिल जुल कर सबका आखेट.
साइड में हो जाना प्यारे,
जब भी वो निकलें बाजू से.
आलू प्याज अगर मँहगे हों,
काम चला लेना काजू से.
कच्छा बनियान बहुत है तुमको,
उनको आवश्यक जाकेट.
गठबंधन की गाँठ न टूटे,
नवसिखियों को सिखा रहे हैं.
जिनके पास न धरती उनको,
स्वप्न गगन के दिखा रहे हैं.
लोक छुहारा हुआ सूख कर,
हुआ तंत्र का दुगुना वेट.
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय Naval Kishor Soni जी दिल से शुक्रिया आपका
आ. भाई बसंत जी, लोकतंत्र को बेहतरीन ढंग से उजागर किया है । हार्दिक बधाई ।
गठबंधन की गाँठ न टूटे,
नवसिखियों को सिखा रहे हैं.
जिनके पास न धरती उनको,
स्वप्न गगन के दिखा रहे हैं.
लोक छुहारा हुआ सूख कर,
हुआ तंत्र का दुगुना वेट.
वाह आदरणीय बसंत जी वाह ... वर्तमान के हालात को जीते इस सुंदर नवगीत के लिए हार्दिक बधाई।
आज के 'लोक' एवं 'तन्त्र' पर सटीक लेखन, बधाई आपको !
आदरणीया KALPANA BHATT ('रौनक़') जी बहुत बहुत धन्यवाद आपका
बहुत अच्छा नवगीत लिखा है आपने आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी| हार्दिक बधाई|
आदरणीय समर कबीर जी सादर नमस्कार, आपका आशीष पाकर सार्थक हुआ लेखन, साद नमन आपको
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,बहुत अच्छा नवगीत लिखा आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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