आल्हा (वीर छन्द)
बरसे बादल उमड़ घुमड़ के,चहुँ दिशि गूँजे चीख पुकार
गाँव नगर सब डूब गया है,कुदरत की ऐसी है मार
विषम घड़ी आयी केरल में,बाढ़ मचाई है उत्पात
कांप उठा है कोना कोना, संकट से ना मिले निजात
भारी जन धन काल गाल में,कैसे सभी बचाएं जान
खेत सिवान झील में बदले,ध्वस्त हुए सारे अरमान
तहस नहस केरल की धरती,मची तबाही चारो ओर
नाव चले गलियों कूँचे में,काल क्रूर बन गया कठोर
जमींदोज सब भवन हो गए,आयी बाढ़ बड़ी विकराल
सारी नदियाँ हुई समंदर,निगल गयी सबकुछ तत्काल
जीव जंतु पर आफत आयी,व्यथित हृदय हैं सब लाचार
तितर बितर हो गयी व्यवस्था, कैसे कोई पाए पार
सब हिल मिलकर आगे आएं,तुरत मदद की है दरकार
मानवता को सभी बचाएं,चाहे कोई भी सरकार
नहीं सियासत शोभा देगी,दिल की सभी सुने आवाज
सदा धैर्य से करें समर्पित,तनमन धन केरल पर आज ll
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय पंकज कुमार मिश्रा जी आपके उत्साह वर्धन से दिल खुश हुआ आपका बहुत बहुत आभार
आदरणीय नवीन मनी त्रिपाठी जी आपके उत्साह वर्धन से मन प्रसन्न हुआ बहुत बहुत आभार
वाह आ0 छोटे लाल सिंह साहब बहुत अच्छा लिखा आपने बधाई ।
बहुत बढ़िया आल्हा और उस पर से एक मानवीय मुद्दा, बधाई
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