सुखिया को संसार में, सब कुछ मिलता मोल
पर दुखिया के वास्ते, सकल जिन्दगी झोल।१।
हर देहरी पर चाह ले, आँगन बैठे लोग
भूखों को दुत्कार नित, मंदिर मंदिर भोग।२।
पाले कैसी लालसा, हर मानव मजबूर
हुआ पड़ोसी पास अब, सगा सहोदर दूर।३।
बिकने को कोई बिके, पर ये दुख का योग
औने-पौने बिक रहे, ऊँचे कद के लोग।४।
घुट्टी में सँस्कार की, अब क्या क्या खास
रिश्तों से आने लगी, अब जो खट्टी बास।५।
मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई पंकज जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और नेक सलाह के लिए धन्यवाद
आखिरी दोहा यूं करें तो मात्रतात्मक रूप से शुद्ध हो जाएगा........
संस्कार की घूँट में, जाने क्या है खास
रिश्तों से आने लगी, अब तो खट्टी बास
आ. भाई बसंत जी, दोहो की प्रशंसा और सलाह के लिए आभार ।
बहुत सुंदर दोहे, परिमार्जन अपेक्षित , बधाई आपको
बचा कहाँ कुछ खास भी कर सकते हैं, यदि उचित लगे
आ. नीलम जी, सादर अभिवादन । दोहों की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । उपस्थिति से दोहों का मान बढ़ाने के लिए आभार । इंगित पंक्ति को इस प्रकार लें -
घुट्टी में सँस्कार की, ऐसा क्या अब खास
आ. भाई आरिफ जी, सादर अभिवादन। दोहों की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ. भाई नवीन जी, दोहों पर उपस्थिति,प्रशंसा और त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए आभार ।
मूल रूप में यह पंक्ति इस प्रकार है-
घुट्टी में सँस्कार की, ऐसा क्या अब खास
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, नमस्कार । अच्छे दोहे हुए हैं। प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,बहुत उम्दा दोहे रचे आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'अब क्या क्या खास'
इस पंक्ति में टंकण त्रुटिवश एक शब्द छूट गया है ।
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