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आदरणीय रवि भैया, बहुत बहुत आभार
आदरणीय पंकज जी अच्छी ग़ज़ल कही आपने कुछ रवानी की कमी महसूस हो रही थी वह आदरणीय समर साहब ने पूरी कर दी है उनके सलाह के मुताबिक इसे दुरुस्त करें। सादर
जनाब अजय कुमार शर्मा जी जी आदाब,
देख रहा हूँ कि आजकल ओबीओ पर सोशल मीडिया की तरह टिप्पणीयाँ दी जा रही हैं,न उनमें रचनाकार को संबोधित किया जाता है,न जिस विधा में रचना होती है उसका हवाला होता है, ये ओबीओ की परिपाटी नहीं है,आप ओबीओ के पुराने सदस्य हैं,आपसे निवेदन करता हूँ कि कृपा कर ओबीओ मंच की गरिमा का मान रखें,और हर सदस्य का ये कर्तव्य है कि जहाँ भी ऐसी टिप्पणी नज़र आये वहाँ टोकें ज़रूर, निवेदन है कि मेरी बात की गम्भीरता को समझें और इसे अन्यथा नहीं लेंगे ।
बहुत शानदार गज़ल.
आदरणीय बाऊजी, प्रणाम....."से" के स्थान "को" ही समुचित है, संशोधन करता हूँ।
वाह आदरणीय मिश्र जी । बहुत सुंदर ग़ज़ल हुई
आ. भाई समर जी, कर्तव्य का भान कराने के लिए आभार ।
'भला क्यूँ जाग रहा हूँ मैं रोज़ रातों से'
ये मिसरा आपने इस तरह किया है तो अंत में 'से' शब्द की जगह ' में' या "को" करना उचित होगा ।
आदरणीय बाऊजी बहुत सारा आभार, इस ग़ज़ल को इस्लाह के लिए ही मंच के हवाले किया है मैंने, इसीलिए इसे फेसबुक पर भी पोस्ट नहीं किया है मैंने।
आपके सुझाव के अनुरूप संशोधन अभी कर देता हूँ........प्रणाम
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी सर, आदरणीय लक्ष्मण सर तथा आदरणीय श्याम नारायण सर, आप सभी को रचना पर उपस्थिति दर्ज कराने के लिए हार्दिक आभार।
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