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तेरे मेरे मुक्तक :मात्रा आधारित....

तेरे मेरे मुक्तक :मात्रा आधारित....

1.
ख़्वाब फिर महके हैं सावन की रात में।
जवाँ दिल बहके ..हैं सावन की रात में।
बारिश की बूंदों में .उल्फ़त की आतिश-
जज़्बात दहके हैं ..सावन ..की रात में।

2.
सालों साल उनकी खबर नहीं .आती ।
कभी ख़्वाबों में वो नज़र नहीं  आती ।
ऐसे   रूठे वो   कि . रूठ  गयी  साँसें -
दिल के शहर में अब सहर नहीं आती।

3.
खुशी के पर्दे  में  क्यूँ   नमी .बनी   रहती है।
हर जानिब इक गम की चादर तनी रहती है।
पैबंद   सी   लगती   है  हंसी  अब  होठों पर -
चश्मे साहिल पर गम की स्याही जमी रहती।

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on September 1, 2018 at 7:58pm

आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब .... मुझे आपके जवाब की प्रतीक्षा रहेगी। हार्दिक आभार।

Comment by Sushil Sarna on September 1, 2018 at 7:57pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 1, 2018 at 12:46pm

आ. भाई सुशील जी, सुंदर मुक्तक हुये हैं । हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on August 31, 2018 at 10:47pm

मुक्तक के बारे में मुमकिन है कि सौरभ भाई का आलेख हो,मालूम करके बताऊंगा ।

Comment by Sushil Sarna on August 31, 2018 at 3:52pm

आदरणीय समर कबीर साहिब , आदाब .... बहुत सुंदर सर ... अपना अमुल्य समय देकर मेरे अनुरोध को मान देने का दिल से शुक्रिया सर। सर इसका मतलब ये हुआ कि बराबर की वर्णिक मात्राओं के साथ उसे बह्र में भी बांधना होगा , क्या मैं सही हूँ सर ? सर अपने मंच पर इसकी पूर्ण जानकारी कहाँ उपलब्ध हो सकती हैं। सादर ....

Comment by Sushil Sarna on August 31, 2018 at 3:45pm

आदरणीय सुरेंदर नाथ जी मुक्तक प्रयास की सरहाना के लिए आपका शुक्रिया। विधा की बारीकियाँ इसी मंच पर सीखने को मिलती हैं। आप सभी गुणीजनों का दिल से आभार जो अपने मार्गदर्शन से रचनाकार को उत्साहित करते रहते हैं। हार्दिक आभार ....

Comment by Samar kabeer on August 31, 2018 at 2:41pm

//ख़्वाब फिर महके हैं सावन की रात में।
जवाँ दिल बहके ..हैं सावन की रात में।
बारिश की बूंदों में .उल्फ़त की आतिश-
जज़्बात दहके हैं ..सावन ..की रात में।

__

'हसीं ख़्वाब महके हैं सावन की रुत में

जवाँ दिल यूँ बहके हैं सावन की रुत में

है बारिश की बूँदों में उल्फ़त की आतिश

यूँ जज़्बात दहके हैं  सावन की रुत में'

फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन

 122     122    122      122

Comment by Sushil Sarna on August 31, 2018 at 2:18pm

आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब .... सृजन के प्रयास को अपनी ऊर्जावान प्रतिक्रिया एवं सुझाव से मान देने का दिल से आभार। आपका सुझाव उचित है और भविष्य में उस पर अमल करने का प्रयास करूंगा। इसे अभी संशोधित भी करता हूँ। सर प्रस्तुति में से किसी एक मुक्तक को आप जिस रूप में चाहते हैं वैसा संशोधित करने का कष्ट करेंगे तो बंदा आपकी बात को बहुत जल्दी ग्रहण कर लेगा। हार्दिक आभार ... अपना स्नेह बनाएं रखें।

Comment by Sushil Sarna on August 31, 2018 at 2:13pm

आदरणीय  narendrasinh chauhan जी सृजन आपकी स्नेहिल प्रशंसा का दिल से आभारी है।

Comment by नाथ सोनांचली on August 30, 2018 at 1:07pm

आद0 नरेंद्र जी सादर अभिवादन। आपकी चलताऊ टिप्पणी ओ बी ओ की परंपरा के अनुकूल नहीं है। पीछे भी यह बात कही जा चुकी है। संज्ञान लीजिये। सादर

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