पूरा ऑफिस इकट्ठा हो गया था, बॉस जूते निकालकर मंदिर में घुसा और गणपति आरती शुरू हो गयी. उसे यह सब ठीक नहीं लग रहा था लेकिन सब आये थे तो उसे भी आना पड़ा. एक किनारे खड़ा वह सोच रहा था कि अगर यहीं किसी और धर्म का व्यक्ति अपनी इबादत शुरू करना चाहे तो क्या ये लोग उसे भी इसी तरह करने देंगे.
चंद मिनटों बाद उसकी नज़र सफाई कर्मचारी हमीदन बी पर पड़ी, वह भी एक तरफ चुपचाप खड़ी थी. उसे बेहद आश्चर्य हुआ, यह उसकी धारणा के उलट था. खैर पूजा संपन्न हुई और प्रसाद देने वाले ने हमीदन बी को भी एक लड्डू और मोदक दिया जिसे उसने बड़े प्यार से अपने खोंचे में बाँध लिया. अब उससे रहा नहीं गया और उसने पूछ ही लिया "अरे हमीदन, तू कबसे पूजा पाठ में आने लगी?".
हमीदन ने साडी का पल्लू संभाला और बोली "साहब, मुझे तो कोई दिक्कत नहीं होती, जैसे हमारा मज़हब वैसे आपका. बस इसी बहाने हम भी उपरवाले को याद कर लेते हैं".
"लेकिन तुम्हारे यहाँ किसी को पता चलेगा तो क्या वह बुरा नहीं मानेगा. मतलब कोई मौलाना ऐतराज़ तो कर सकता है ना", उसने अपनी शंका प्रकट की.
"जब हमारे मरद ने हमको बिना तलाक़ दिए नया घर बसा लिया और किसी ने ऐतराज़ नहीं किया साहब, तो इसमें क्या करेगा", हमीदन ने जाते जाते कहा.
अब उसे अपने पूजा में आने का अफ़सोस हो रहा था.
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आद0 विनय कुमार जी सादर अभिवादन। बढिया समकालीन परिस्थितियों में उत्तम लघुकथा। बधाई निवेदित है इस रचना पर।
रचना के मर्म को समझकर टिपण्णी करने के लिए बहुत बहुत आभार आ शेख शहज़ाद उस्मानी जी
एक तीर से कई निशाने पूजा और तलाक व प्रसाद/जुगाड़ बहाने। वाह! बेहतरीन समसामयिक सृजन। हार्दिक बधाई आदरणीय विनय कुमार साहिब! पहली दो और अंतिम पंक्तियां महत्वपूर्ण बन गई हैं विचारोत्तेजक!
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