थाने के अंदर जाकर उसने एक किनारे अपनी बाइक खड़ी की और चारो तरफ का मुआयना करने लगा. काफी बड़ा अहाता था इस थाने का और एक तरफ संतरी बंदूक जमीन पर टिकाये उसी को देख रहा था. वह धीरे धीरे संतरी की तरफ बढ़ा तभी उसकी नज़र एक खम्भे से बंधे एक आदमी पर पड़ी. गंदे कपडे पहने उस पुरुष की पीठ उसकी तरफ थी और उसके पास दो पुलिस वाले खड़े थे.
इतने में इंस्पेक्टर बाहर आये और उसको देखते ही एक सिपाही को आवाज़ लगाया "अरे दो कुर्सी निकालो बाहर". उसने इंस्पेक्टर से हाथ मिलाया और दोनों कुर्सियों पर बैठ गए.
"जल्दी से दो चाय लाना" बोलकर वह उठा और उस खम्बे की तरफ बढ़ा. खम्भे में बंधा आदमी कांपने लगा, उसे लग गया कि अब उसकी शामत आने वाली है.
"इसी हरामजादे ने मोटर चुराई थी ना, जरा लाठी लाना, बहुत चर्बी चढ़ गयी है इसपर", बोलते हुए वह खम्बे के पास पहुँच गया. खम्बे में बंधा आदमी अब रोने लगा था और एक पुलिस वाले ने लाठी लाकर उसे पकड़ा दिया.
"रस्सी खोलकर इसके दोनों हाथ पकड़ो, साले को चोरी का इनाम देता हूँ", वह गुर्राया. रस्सी से बंधा आदमी अब जोर जोर से रोने लगा, उसकी रस्सी खोलकर दोनों पुलिस वालों ने उसके हाथ पकड़ लिए.
"चोप्प साला, नाटक करता है, अभी समझाता हूँ", और उसने ताबड़तोड़ लाठियां उसके पिछवाड़े पर बरसानी शुरू कर दी.
इस बीच एक पुलिसवाले ने चाय लाकर रख दी थी, वह आदमी बुरी तरह चिल्ला रहा था. कुछ ही समय बाद वह एक पुलिसवाले की तरफ झूल गया और इंस्पेक्टर ने लाठी मारना बंद कर दिया.
"ले जाओ साले को और बंद कर दो अंदर. अगर अब भी नहीं कबूलेगा तो रात को इसका दूसरा इलाज करेंगे", कहकर वह हाथ झाड़ता हुआ आया और कुर्सी पर बैठ गया.
'लीजिये चाय पीजिये, ये सब यही भाषा समझते हैं. पिछले महीने भी एक मोटर चुराया था इस साले ने और बाद में इसके बाप ने लौटाया. अच्छा कोई बढ़िया स्कीम बताईये मैनेजर साहब जहाँ हम इन्वेस्ट करें", इंस्पेक्टर ने बड़े आराम से कहा जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो और चाय उठाकर पीने लगा.
सामने कप में रखी चाय उसे खून जैसी लग रही थी, उसे अख़बारों और पत्रिकाओं में पढ़े मानवाधिकार की बातें याद आने लगीं. फिर उसे याद नहीं रहा कि उसने इंस्पेक्टर को क्या बताया, लेकिन रात को खाना खाने के बाद उसे उल्टी हो गयी.
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आ लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी
आ. भाई विनय कुमार जी,अच्छी लघुकथा लिखी। इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकारें ।
बहुत बहुत आभार आ सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी
आद0 विनय जी सादर अभिवादन। मानवाधिकार की बातें पर बेहतरीन कटाक्ष करती और थानों की सच्चाई बयाँ करती इस बेहतरीन लघुकथा पर आपको हार्दिक बधाई।
बहुत बहुत आभार आ सतविंद्र कुमार राणा जी
बहुत बहुत आभार आ मुहतरम समर कबीर साहब
बहुत बहुत आभार आ डाँ विजय शंकर साहब
बहुत बहुत आभार आ शेख शहजाद उस्मानी साहब, आपने लघुकथा पर समय दिया और विस्तृत टिप्पणी की. आपका सुझाव बढ़िया है, विचार करूँगा, शुक्रिया
बहुत बहुत आभार आ आशा जुगरान जी
उत्तम कथा आदरणीय विनय कुमार जी। ओपन में थर्ड डिग्री का बखूबी चित्रण किया आपने। और पक्ष भी दिमाग में कौंधते हैं इसे पढ़ते हुए।
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