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(मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल)
जिन्हें भी टूट के चाहा वो पत्थर के सनम निकले
चलो अच्छा हुआ दिल से मुहब्बत के भरम निकले //1
उड़ें छीटें स्याही के, उठे पर्दा गुनाहों से
कभी तो तेग़ के बदले म्यानों से कलम निकले //2
हवा में ढूँढते थे पाँव अपने घर के रस्ते को
तेरी महफ़िल से आधी रात को पीकर जो हम निकले //3
तू मुझसे दूर होता जा रहा है दिन ब दिन चुपचाप
दुआ करता हूँ ये डर भी फ़क़त मेरा भरम निकले //4
तेरी ख़ू ए तग़ाफ़ुल ने मुझे भी सख़्त कर डाला
मेरी तुर्राबयानी में तेरे सब पेचोख़म निकले //5
लगी है आग शोलों के बिना पेट्रोल डीज़ल में
कि डॉलर के मुक़ाबिल हिन्द के रुपये भी कम निकले //6
मियाँ कश्मीर की वादी है ये, जन्नत गुनाहों की
यहाँ खेतों में फसलों की जगह बंदूक़-ओ-बम निकले //7
जो थे दारुल हिफाज़त बेसहारा औरतों के घर
वो सब अय्याश नेता के ठिकाने थे, हरम निकले //8
ये दुनिया देख ली हमने अज़ाबे ज़ीस्त में जलकर
पसे रहलत मिले जो भी ख़ुदारा वो इरम निकले //9
मेरे पावों से आ लिपटे कई दीगर मसाइल भी
कि सू ए यार की जानिब मेरे जब भी क़दम निकले // 10
हुए अजदाद की जागीर से बेदख्ल जो हम भी
कि ये अहसान भी अपनों के ही फ़ैज़ो करम निकले //11
रहो तैय्यार तुम हर पल मज़ा मरने का चखने को
न जाने किस घड़ी सीने से आख़िर कार दम निकले //12
न दे तू रिज़्क़ खाने को मगर ऐ मुफ़लिसी मेरी
पुराने ख़ुम से दो ही घूँट पीने को तो रम निकले //13
मज़ा आता नहीं है अब हमें सिगरेट पीने का
धुआँ बनकर जिगर से राज़ मेरे सारे ग़म निकले //14
~राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
(आवश्यक बदलाव के बाद एवं तीन नए अशआर के साथ)
Comment
आदरणीय राज़ साहब, ख़ूबसूरत अशआर हुए हैं. शेष आदरणीय समर साहब कह चुके हैं.
जनाब राज़ नवादवी साहिब आदाब,ग़ालिब की ज़मीन में ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,लेकिन कुछ अशआर अभी समय चाहते हैं,बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
' जिन्हें भी इश्क़ में चाहा वो पत्थर के सनम निकले'
'इस मिसरे का शिल्प कमज़ोर है'इश्क़ में चाहा'?इस मिसरे को यूँ करना उचित होगा:-
'किया है इश्क़ जिनसे भी वो पत्थर के सनम निकले'
दुआ करता हूँ ये डर भी फ़क़त मेरा वहम निकले"
इस मिसरे में 'वहम' ग़लत है,सहीह शब्द है " वह्म",देखियेगा ।
' यहाँ खेतों में फसलों की जगह असलाहो बम निकले"
इस मिसरे में 'असलाहो' ग़लत शब्द है सहीह शब्द है "असलह" ।
' हुए अजदाद की जागीर से जो बेदख़ल हम भी'
इस मिसरे में 'बेदख़ल' ग़लत शब्द है,सहीह शब्द है "बेदख़्ल",इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
"हुए अजदाद की जागीर से बेदख़्लल जो हम भी'
' रहो तैय्यार तुम हर पल मज़ा ए मौत चखने को'
इस मिसरे में "मज़ा" शब्द में इज़ाफ़त नहीं लगेगी ।
' न जाने किस घड़ी सीने से आख़िर बार दम निकले'
इस मिसरे में आख़िर बार' को "आख़िर कार" करें ।
' पुराने ख़ुम से दो दो बूँद पीने को तो रम निकले'
इस मिसरे को यूँ करें :-
' पुराने ख़ुम से दो ही घूँट पीने को तो रम निकले'
ग़ज़ल में सात शैर कहें और सलीक़े के कहें,इतने अशआर कहने से क्या होगा ।
बाक़ी शुभ शुभ ।
जनाब राज़ साहब, बहुत खूब ग़ज़ल हुई है। दिली मुबारक़बाद क़ुबूल फ़रमाएं!
सादर!
आदरणीय मुहम्मद आरिफ़ साहब, आदाब। ग़ज़ल में शिरकत और सुख़न नवाज़ी का तहेदिल से शुक्रिया। सादर।
आदरणीय राज़ नवादवी जी आदाब,
ग़ालिब की ज़मीन पर लिखी गई बहुत ही सशक्त और लाजवाब ग़ज़ल । ग़ज़ल के कुछ शे'र तो बहुत ही सामयिक बन पड़े हैं । शे'र दर शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें ।
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