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'तू मेरा क्या लागे?' (लघुकथा)

"देख, अब भी समय है! संभाल ले, अनुशासित कर ले अपने आप को!"
"अपनी थ्योरी अपने ही पास रख! ... देख, रुक जा! ठहर जा! रोक ले समय को भी! उसे और तुझे मेरे हिसाब से ही चलना होगा!"
"तो तू मुझे अपनी मनचाही दिशा में धकेलेगा! अपनी मनचाही दशा बनायेगा! 'देश' और 'काल' की गाड़ी की मनचाही 'स्टीअरिंग' करेगा!
"बिल्कुल! ड्राइवर, कंडक्टर, सब कुछ मैं ही हूं और हम में से ही हैं हमारे देश की गाड़ी चलाने वाले! तुम.. और समय .. तुम दोनों तो बस क़िताबी हो; बड़ी ज़िल्द वाली बड़ी-बड़ी क़िताबों में रहकर बड़ी-बड़ी बातें करने व करवाने वाले, बक-बक और टिक-टिक करते रहने वाले; बिकने, बेचने वाले, बस!"
"क्या बकते हो? तुम्हारी और तुम्हारे द्वारा बनाए गए लोकतंत्र की गाड़ी, तुम्हारे प्रतिनिधियों द्वारा बनवाए गए विधि-संविधान द्वारा ही चलती है न! फ़िर तुम उनका उल्लंघन और अवहेलना कर क्यों इतराते हो?" इस बार सटीक शब्दों में समझाते हुए 'क़ानून' ने उस कुतर्क कर रहे देश के 'आम नागरिक' से कहा। लेकिन वह चुप न रह सका। बोला :

"इतरा नहीं रहा हूं! अपनी ताक़त से समय अनुसार तुम्हें रोक रहा हूं या बदल रहा हूं! हम तुम्हारे हिसाब से नहीं, तुम्हें हमारे हिसाब से, हमारे धर्म के हिसाब से, हमारे नेतृत्वकर्ता के हिसाब से चलना होगा या बदलना होगा!"
"...'समय', समय है और 'मैं', मैं हूं! न तुम समय को रोक सकते हो, न ही मुझे! न ही हमें तुम किसी मनचाही दिशा में धकेल सकते हो! समझे!"
"अंधे हो, अंधे! दिखता नहीं तुम्हें कि देश में क्या चल रहा है; क्या-क्या करवाया और चलवाया जा रहा है! बिल्कुल सही कहा गया है तुम्हें .. 'अंधा क़ानून'!"
"नहीं, नहीं! यह तो तुम्हारा जुनून है! वक़्त और लोकतंत्र का ख़ून सवार है तुम और तुम जैसों पर!"
"बहुत हो गया! बहुत सह ली वक़्त और कायदे-क़ानूनों की मार! अरे, लगते क्या हो अब तुम हमारे!"
"ये 'तुम' कह रहे हो? अरे, बड़बोले! बेपेंदी के लोटे! ये हालात तुमने ही बनाए हैं! अब तुम पहले जैसे न तो नागरिक रहे, न ही मतदाता और न ही देशभक्त! ... ख़ैर, समय ही तुम्हें सही दिशा और दशा की ओर धकेलेगा! समय रहते जाग जाओ; संभलो और संभालो अपने अद्वितीय वतन और लोकतंत्र को, समझे!" देश के 'क़ानून' के ये शब्द गुंजायमान हो उठे और आम 'नागरिक' न चाहकर भी अपने कानों पर हाथ रख शर्मिंदगी सी महसूस करता रह गया।


(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 6, 2018 at 4:15am

आदाब। मेरी इस रचना पर समय देकर अनुमोदन और मेरी हौसला अफ़ज़ाई हेतु तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब तेजवीर सिंह साहिब, जनाब समर कबीर साहिब, जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब और मुहतरमा नीलम उपाध्याय साहिबा।

Comment by Neelam Upadhyaya on November 5, 2018 at 12:37pm

आदरणीय शेख शेह्ज़ाद उस्मानी जी, आजकल कल के हालात पर कटाक्ष करती बहुत ही बढ़िया लघुकथा।  हार्दिक बधाई।  |

Comment by Mohammed Arif on November 4, 2018 at 8:01am

आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,

                                           'क़ानून 'और 'आम नागरिक' को केंद्र में रखकर मानवीकरण शैली में लिखी गई बहुत ही कटाक्षपूर्ण लघुकथा । हालाँकि कुछ वर्तनीगत अशुद्धियाँ हैं । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Samar kabeer on November 3, 2018 at 5:13pm

जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by TEJ VEER SINGH on November 3, 2018 at 12:21pm

हार्दिक बधाई आदरणीय शेख उस्मानी जी। बेहतरीन लघुकथा।वर्तमान हालात पर तगड़ा तंज और कटाक्ष करती रचना।

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