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आ गया है जेठ, गर्मी का महीना
अब समंदर को भी आयेगा पसीना //१
उम्र भी अब तो सताने लग गई है
डूबता ही जा रहा है ये सफ़ीना //२
सोचता हूँ जिंदगी भी क्या करम है
उफ़ ! ये मरना और यूँ मर मर के जीना //३
ज़िंदगानी के तराने गा रहे सब
हैं दिवाने सैकड़ों और इक हसीना //४
सुन रहे हैं ये ग़ज़ल जो आप हमसे
हमने पत्थर से निकाला है नगीना //५
घर से तेरे लौट कर हमको लगा यूँ
आ गए हम होके मक्का और मदीना //६
आदमी ही आदमी को डंस रहा है
आदमी भी हो गया कितना कमीना //७
अब नहीं निस्बत न कोई आरज़ू है
आ गया मुझको भी जीने का करीना //८
हो करम फ़रमाँ तू ग़ैरों के अलम में
तू कभी अपने अलम में हो दुखी ना //९
अब नहीं लिखता ग़ज़ल, सब पूछते हैं
तेरी भी वो एक शहज़ादी तो थी ना? // १०
लौट के जाऊं अदम जो अब मैं चलके
राज़ निकलूँ घर से बाहर मैं कभी ना //११
~राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
(इस्लाह के बाद)
Comment
आदरणीय तेज वीर सिंह साहब, आदाब. ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफज़ाई का दिल से शुक्रिया. सादर
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, आदाब. ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफज़ाई का दिल से शुक्रिया. सादर
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी, आदाब. ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफज़ाई का दिल से शुक्रिया. सादर
हार्दिक बधाई आदरणीय राज़ नवादवी जी। बेहतरीन गज़ल।
सोचता हूँ जिंदगी भी क्या करम है
उफ़ ! ये मरना और यूँ मर मर के जीना //३
आ. भाई राज नवादवी जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आ गया है जेठ, गर्मी का महीना
अब समंदर को भी आयेगा पसीना
खूबसूरत भावचित्र खींचा है ..
आदरणीय राज जी को सादर नमस्कार , बहुत सुंदर गजल हुई , बधाई आपको
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