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ख़ुशियों से क्या मिले मज़ा, ग़म ज़िंदगी में गर न हो
शामे हसीं का लुत्फ़ क्या जब जलती दोपहर न हो
लुत्फ़े वफ़ा भी दे अगर बेदाद मुख़्तसर न हो
इक शाम ऐसी तो बता जिसके लिए सहर न हो
हालात जीने के गराँ भी हों तो क्या बुराई है
मजनूँ मिले कहाँ अगर सहराओं में बसर न हो
ऐसी रविश तो ढूँढिए गिर्यावरी ए आशिक़ी
तकलीफ़ देह भी न हो, नाला भी बेअसर न हो
ख़ुशियों के मोल बढ़ते हैं रंजो अलम के क़ुर्ब से
तादाद की बिसात क्या आगे में गर शिफ़र न हो
कैसी है बद ख़्याली-ए-अहले ज़माँ, कहते फिरें
करते हैं इश्क़ लोग वो जिनमें कोई हुनर न हो
दुनिया है ख़्वाब गाह गर, बालीं परस्त मैं रहूँ
सोने दे राज़, ख़ुद की अब ताज़िंदगी ख़बर न हो
~ राज़ नवादवी
“मौलिक एवं अप्रकाशित”
बेदाद- अनीति, अत्याचार; मुख़्तसर- संक्षिप्त; रविश- पद्धति, आचार-विचार; गिर्यावरी ए आशिक़ी- प्रेम में आँसू बहाना; नाला- आर्तनाद, पुकार; क़ुर्ब- सामीप्य; शिफ़र- शून्य; अहले ज़माँ- ज़माने के लोग; बालीं परस्त- पलंग पे पड़ा रहने वाला, आराम तलब
Comment
आदरणीय राहुल डांगी जी, ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफज़ाई का ह्रदय से आभार. सादर.
बहुत खूब हार्दिक बधाई आदरणीय राज नवादवी जी
आदरणीय अजय तिवारी साहब, आदाब, ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफज़ाई का ममनून हूँ. सादर.
आदरणीय राज़ साहब, उम्दा ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.
आदरणीया राजेश कुमारी जी, आदाब. ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफज़ाई का तहेदिल से शुक्रिया. सादर
वाह्ह्ह्ह बेहतरीन ग़ज़ल हुई है जनाब राज़ नवादवी साहब शेर दर शेर दाद कुबूलें
जी, बहुत बहुत शुक्रिया जनाब समर कबीर साहब, बदलाव के बाद रेपोस्ट करता हूँ. सादर
' शामे हसीं का लुत्फ़ क्या जब जलती दोपहर न हो'
ये बहतर है ,बधाई ।
जी जनाब समर साहब, आदाब. आपके कहे अनुसार नए उला मिसरे के साथ मतला यूँ है, कृपया इस्लाह दें:
ख़ुशियों से क्या मिले मज़ा, ग़म ज़िंदगी में गर न हो
शामे हसीं का लुत्फ़ क्या जब जलती दोपहर न हो
मैंने 'शामे ख़ुनुक' भी सोचा था, पर ऐबे तनाफुर का मसला आ गया.
सादर
'
कैसे उड़ेगा वो भला बालों पे जिसके पर न हो'
बात जमी नहीं,ऊला मिसरे पर दूसरा मिसरा कहें,क़ाफ़िया बदल कर ।
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