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हुआ अब तक नहीं है हुस्न का दीदार जाने क्यों ।
बना रक्खी है उसने बीच मे दीवार जाने क्यों ।।
मुहब्बत थी या फिर मजबूरियों में कुछ जरूरत थी ।
बुलाता ही रहा कोई मुझे सौ बार जाने क्यों ।।
यहाँ तो इश्क बिकता है यहां दौलत से है मतलब ।
समझ पाए नहीं हम भी नया बाज़ार जाने क्यों ।।
तिजारत रोज होती है किसी के जिस्म की देखो ।
कोई करने लगा है आजकल व्यापार जाने क्यों ।।
कोई दहशत है या फिर वो कलम को बेचकर बैठे ।
बहुत ख़ामोश होते जा रहे अख़बार जाने क्यों ।।
हर इक इंसान में नफरत सियासत बो गयी शायद ।
जलेगा मुल्क मुद्दत तक लगा आसार जाने क्यों ।।
वो पढ़ लिख कर निवाले के लिए मोहताज़ है साहब ।
यहां सुनती नहीं कुछ बात को सरकार जाने क्यों ।।
बड़ी उम्मीद थी वो मुल्क़ की सूरत बदल देंगे ।
लगे हैं लोभ के आगे वही लाचार जाने क्यों ।।
तरक्की हो चुकी है मान लेता हूँ मगर साहब ।
यहां रोटी पे होती है बहुत तक़रार जाने क्यों ।।
बगावत कर चुके है जब रहेंगे हम सदा बागी ।
फरेबी दे रहे अब झूठ का उपहार जाने क्यों ।।
वो चिड़िया उड़ गई जब आपको अपना समझते थे ।
जमाते आप मुझपर हैं कोई अधिकार जाने क्यों ।।
मौलिक
अप्रकाशित
Comment
मैंने आपको लिखा है कि रदीफ़ से इंसाफ़ नहीं हो रहा है,उस पर विचार करें ।
आ0 कबीर सर सादर नमन
मैंने जिस भाव के अंतर्गत शेर कहने का प्रयास किया है उसका भाव स्पष्ट कर रहा हूँ ।
शेर संख्या 2
वर्तमान समय मे शायर मुहब्बत के गिरते हुए स्तर को लेकर अपनी भ्र्म पूर्ण स्थित को प्रकट कर रहा कि कोई(प्रेयसी )मुहब्बत में बुला रहा था अपनी जरूरत की वजह से बुला रहा था । पर न जाने क्यों वह बार बार बुला रहा था ।
शेर संख्या 3
यहां शायर
प्रेम के बदलते रूप पर प्रकाश डाल रहा है । लोग अब पैसों के लिए मुहब्बत करते है न जाने क्यों यह बात अब तक समझ नहीं सका ।
शेर संख्या 4
भावार्थ यह है कि कोई अब न जाने क्यों जिस्म तक का सौदा कर रहा है । यहां पहली पंक्ति की तिजारत रब्त व्यापार से है ।
शेर 6
शायर यहां मुल्क को जलता हुआ देख रहा है । आदमी आदमी से नफरत करता देख कर उसके मूल में सियासत को कारण मानने की सम्भवना तलाश कर रहा है । अभी मुद्दत यह आग बुझने की उम्मीद दिखाई नही दे रही।
आ. भाई नवीन जी, गजल का अच्छा प्रयास हुआ है । हार्दिक बधाई । आ. भाई समर जी की राय का संज्ञान लें । शेष शुभ शुभ...
ग़ज़ल के 2,3,4,6 नम्बर के अशआर में भाव स्पष्ट नहीं,और रदीफ़ से भी इंसाफ नहीं हो रहा है,
इस ग़ज़ल पर पुनः आता हूँ ।
बहुत खूब ।
बहोत खूब सर ,
वाह वाह जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी, बहुत खूब.
हुआ अब तक नहीं है हुस्न का दीदार जाने क्यों ।
बना रक्खी है उसने बीच मे दीवार जाने क्यों ।।
सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई. सादर
आ0 तेजवीर सिंह साहब हार्दिक आभार ।
आ0 श्याम नारायण वर्मा जी सप्रेम आभार और नमन ।
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