मैं इठलाती,
मैं बलखाती,
मंद चाल से,
बढ़ती हूँ
शरद ऋतु जब,
वर्ष में आये
अपना जाल,
बिछाती हूँ||
कहीं थपेड़े,
पवन दिलाती
कहीं,
बर्फ पिघलाती हूँ
कहीं,
तरसते धूप
को सब जन
कहीं कपकपी,
खूब दिलाती हूँ
वर्षा ऋतू,
के बाद में आयी,
शरद ऋतू,
कहलाती हूँ||
कोई निकाले,
कम्बल अपने,
कोई,
रजाई खोज रहा
कोई जला के
अंगीठी अपनी
हाथ,
आग में शेख रहा
नए बिरंगे,
फूल खिलाती
ऋतुओं,
में भेद कराती हूँ
वर्षा ऋतू के,
बाद में आयी
शरद ऋतू,
कहलाती हूँ|| ||
वृद्धजनों,
की सामत लाती
बच्चों संग,
खेल दिखाती हूँ
युवाओं की,
बन सखी
परिवर्तन का,
नियम,
समझाती हूँ
वर्षा ऋतू,
के बाद में आयी,
शरद ऋतू,
कहलाती हूँ||
“मौलिक और अप्रकाशित”
Comment
आदरणीय छोटेलाल जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय बृज जी, आपका बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय समर जी, हौसलाफजाई के लिए धन्यवाद
हाँ आदरणीय..आज तक यही सुना है...शायद टाइपिंग मिस्टेक होगी!!
" आग में शेख रहा"
ये शायद 'आग में सेक रहा' होगा ?
बढ़िया आदरणीय..लेकिन आग में शेख रहा में मुझे लगता है शेख शब्द सहीह नहीं है..
आदरणीय फूल सिंह मौसम के अनुकूल अच्छी रचना के लिए बधाई
जनाब फूल सिंह जी आदाब,सर्दी के मौसम पर अच्छी कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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