*रक्तसिक्त हाथ* (लघुकथा)
हवालाती कैदी के रूप में तीसरा दिन। किसी से मुलाक़ात के लिए उसे भी पुकारा गया। मुलाकात कक्ष में पहुँचते ही सींखचों के पार एक मुस्कुराता चेहरा नज़र आया।
काजू कतली का डिब्बा आगे बढ़ाते हुए जिसने कहा, ''रजिस्ट्री हो गई साहब! मुँह मीठा करवाने आया हूँ।"
कुछ ही समय पहले जो बिलकुल अंजान था, वही चेहरा अहर्निशं अब उसकी आंखों और दिमाग़ में तैरता रहता है।
सत्यवीर भान का चेहरा। आज दूसरी बार इस चेहरे पर भयानक मुस्कुराहट देख पा रहा था। जिसे देखकर उसे स्मरण हो आया।
सत्यवीर उसके दफ्तर के बाहर था। चपरासी ने एक घण्टा रोके रखा। फिर मिलने जाने दिया।
"जय हिंद साहब!"
उसने कागज को पढ़ते हुए तिरछी आँख से देखा और मौन अभिवादन पेश किया।
दफ्तर में दो अन्य व्यक्ति, उसके सामने ही कुर्सियों पर बैठे थे।
बिना उसकी अनुमति की प्रतीक्षा किए, सत्यवीर याचना करने लगा,
"साहब! एक छोटे-से मकान का बयाना दिया था। रजिस्टरी करवाने गये तो उन्होंने कमेटी से एन ओ सी लाने की बात कही। कह रहे हैं इसके बिना रजिस्ट्री नहीं होगी।"
वह निर्विकार भाव से कागज को पढ़ता रहा।
"साहब! मैं ढाई महीने से आपके दफ्तर में आ-जा रहा हूँ। कागज़ों में कुछ कमी है तो बताओ। यहाँ के बाबू मुझे हर नए दिन का करार दे रहे हैं।"
तभी हाथ में कुछ फाइलें सँभाले एक बाबू ने प्रवेश किया। अभिवादन कर फाइलें मेज पर रख कर वह भी उसके सामने कुर्सी पर बैठ गया।
सत्यवीर फिर गिड़गिड़ाया, "साहब!"
वह रूखी-सी आवाज में बोला, "इसका क्या मैटर है?"
बाबू ने कहा, " डेवलोपमेन्ट चार्जेज लेकर एन ओ सी देने का मामला है। आपके सामने फाइल आई थी। क्वेरी लगाई थी आपने।"
सामने बैठे व्यक्तियों की ओर देखते हुए बोला ," छः छः महीने लगा देते हैं क्वेरी का जवाब देने में सब डिवीजन वाले।"
फिर बेपरवाही से सत्यवीर को संबोधित किया, " चिट्ठी डालकर बुला लेंगे जब काम हो जाएगा।"
अगली बार सत्यवीर जब उसके दफ्तर में आया तो वह और बाबू दो ही जन बैठे थे। सत्यवीर के हाथ में एक लिफाफा था। चुपके-से उसे थमाते हुए वह बोला, " साहब! मैं मोटी अकल कुछ समझ ही न पाया पहले। मुझे माफ़ करते हुए आज तो मेहरबानी कर दें साहब!"
लिफ़ाफ़े को नीचे किया। जिसे अंदर से टटोलते ही उसके चेहरे पर मुस्कान फ़ैल गयी। बाबू की ओर इशारा किया। जो सत्यवीर को फीस जमा करवाने ले गया।
एन ओ सी मिलते ही सत्यवीर भी मुस्कुराते हुए बाहर निकला। बाहर की तरफ मुस्कुराते हुए अँगूठा उठा कर दिखाया।
तभी अचानक तीन व्यक्ति आए और दफ्तर में झट-से घुसे व साहब को बाहर ले आए।
उसे हाथों को साफ़ पानी से धोने के लिए कहा गया। हाथ पानी से धोए जा रहे थे मगर लग रहा था कि वे खून में सने हैं और खून मिला लाल पानी उनसे तरड़ रहा है।
सत्यवीर के चेहरे पर जो मुस्कान उस समय थी वह उतनी ही भयानक थी जितनी कि आज।
मौलिक अप्रकाशित
Comment
शीर्षक उम्दा और बेहतरीन।
आदाब। चिर-परिचित और समाचारों/फ़िल्मों में बताये जा चुके प्रसंग पर आपकी अपनी बेहतरीन प्रवाहमय शैली और शिल्प में प्रभावशाली रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय सतविंदर कुमार राणा साहिब। संदेश सतर्क, चौकन्ना और न्याय के लिए पुलिस की मदद लेना और 'जैसे को तैसा ' का है। मुस्कराहट का बढ़िया उपयोग किया गया है भावाव्यक्ति हेतु।
आद0 सतविंद्र जी सादर अभिवादन। बढ़िया लघुकथा लिखी आपने, बधाई स्वीकार कीजिये
जनाब सतविन्द्र कुमार राणा जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,लेकिन तवालत ज़ियादा हो गई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
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