बह्र ए मीर
अब तक रहे भटकते उजड़े दयार में
अब कौन बसा आन दिले बेक़रार में
जिस रास्ते पे उनकी मन्ज़िलें नहीं
उस राह में खड़े हैं इन्तज़ार में
बेकार हर सदा है कितना पुकारता
ये कौन सो रहा है गुमसुम मज़ार में
उस फूल को ख़िज़ायें ले के कहाँ गईं
जिस फूल को चुना था लाखों हजार में
ऐ मीत इस कदर भी मत आज़मा मुझे
आ जाये न कमी 'ब्रज' के ऐतबार में
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
बह्र-ए-मीर पर "ग़ज़ल की कक्षा" में जनाब अजय तिवारी साहिब का आलेख मौजूद है,उसका अध्यन करें ।
आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' साहब, आदाब. सुंदर ग़ज़ल की प्रस्तुति पे मुबारकबाद क़ुबूल करें. साथ ही. जो बातें जनाब समर कबीर साहब ने इंगित की हैं उनका संज्ञान लेकर लाभान्वित हों. सादर.
देर से आने के लिए मुआफ़ी चाहता हूँ आदरणीय समर कबीर जी..दरअसल ये ग़ज़ल पोस्ट करने का एक कारण ही यही कि थोडा शंका समाधान हो..ये मापनी सबसे सरल कही जाती है लेकिन मुझ जैसे नए लोगों के लिए इसे समझना वाकई मुश्किल है।हालाँकि ग़ज़ल के नजरिये से इसकी तकती' करना मुनासिब नहीं है लेकिन हिंदी ग़ज़ल और सम मात्रिक छंदों में ऐसे कई उदहारण हैं जहाँ 121 को 22, 2112 को 222 माना गया है।
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आदाब,इस ग़ज़ल की एक बार तक़ती'करके देखिये, क्या आपको ठीक लगती है?
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