उन्हें कौन पूछे उन्हें कौन तारे
युगों से जुदा हैं नदी के किनारे
उदासी उदासी उदासी घनेरी
विरह वेदना प्रीत की है चितेरी
अँधेरे खड़े द्वार पे सिर झुकाये
तभी रात ने स्वप्न इतने सजाये
उसी रात को छल गये चाँद तारे
युगों से जुदा हैं नदी के किनारे
लगी रात की आँख भी छलछलाने
अँधेरा मगर बात कोई न माने
क्षितिज पे कहीं मुस्कुराया सवेरा
तभी रूठ कर चल दिया है अँधेरा
नजर रोज सुनसान राहें बुहारे
युगों से जुदा हैं नदी के किनारे
घटा नेह के गीत हर बार गाये
हवा बावरी राग नूतन सुनाये
मगर गीत कोई दिलासा न लाया
खबर कोई आई न मनमीत आया
ह्रदय में चुभे शूल संध्या सकारे
युगों से जुदा हैं नदी के किनारे
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
आदरणीय गिरधारी सिंह जी सादर अभिवादन स्वीकार करें...
बहुत ही सुन्दर सृजन के लिए बढ़ी स्वीकारें बृजेश कुमार 'ब्रज' जी |
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सादर अभिवादन स्वीकार करें..
आ. भाई बृजेश जी, सुंदर गीत हुआ हो । हार्दिक बधाई ।
उत्साहवर्धन के लिये हार्दिक आभार त्रिपाठी जी..सही कहा आपने..सुधार करता हूँ..
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर जी..जी अभी सुधार करता हूँ..सादर
सादर आभार आपके स्नेह के लिए आदरणीय डा.साहब
आ0 बहुत सुंदर गीत लिखा आपने । इसके लिए आपको बधाई । कबीर साहब ठीक कह रहे हैं मैं भी पूंछ के लिए बहुत बार टोका गया हूँ ।
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आदाब,अच्छा गीत हुआ है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
' उन्हें कौन पूंछे उन्हें कौन तारे'
इस पंक्ति में 'पूंछे' को "पूछे" कर लें ।
कैसे कोई भाग्य उनका सँवारे
युगों से जुदा है नदी के किनारे ------ सुन्दर रचना आ० ब्रज जी
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