(२१२२ ११२२ ११२२ २२/११२ )
ख़त्म इकबाल-ए-हुकूमत* को न समझे कोई
और लाचार अदालत को न समझे कोई
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मीर सब आज वुजूद अपना बचाने में लगे
आम जनता की ज़रूरत को न समझे कोई
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ख़ून के रिश्ते भुला देती है जो इक पल में
हैफ़ !भारत की सियासत को न समझे कोई
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जिस्म को छू लिया और इश्क़ मुकम्मल समझा
इतना आसाँ भी महब्बत को न समझे कोई
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रक़्स करवाने की रखती है वो कुव्वत सबको
आज कमज़ोर यूँ औरत को न समझे कोई
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इक तख़य्युल* है फ़क़त ज़ेहन का दोज़ख़-जन्नत
मौत से पहले तो जन्नत को न समझे कोई
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जलजला और तलातुम से दिखाती गुस्सा
फिर भी क़ुदरत की रिवायत को न समझे कोई
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'माँगता रहता है रोज़ाना बशर कुछ रब से
जो अता की उस इनायत को न समझे कोई'
***
मयकशी हो कि कोई और नशा सब हैं बुरे'
पर 'तुरंत' आज नसीहत को न समझे कोई
***
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी
१४ /०१ /२०१९
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
' माँगता रहता है रोज़ाना बशर रब से कुछ
जो अता की उन इनायत को न समझे कोई '
इस शैर के ऊला मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर है,और सानी मिसरे में 'इनायत' एक वचन है इसलिए 'उन' की जगह "उस" शब्द उचित होगा,शैर यूँ कर लें तो तनाफ़ुर निकल जायेगा:-
'माँगता रहता है रोज़ाना बशर कुछ रब से
जो अता की उस इनायत को न समझे कोई'
'मैक़शी हो कि नशा और , न कोई'
इस मिसरे में 'मयकशी' और 'नशा' दोनों एक ही हैं,इसे यूँ कर सकते हैं:;
'मयकशी हो कि कोई और नशा सब हैं बुरे'
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