१.हास्य
उठाई है़ किसने ये दीवार छत पर
अब आएगा कैसे मेरा यार छत पर
अगर उसके वालिद का ये काम होगा
बिछा दूँगा बिजली का मैं तार छत पर
बताकर तू पढ़ती ख़बर नौकरी की
चली आना लेकर तू अख़बार छत पर
सुखाने को पापड़ या चटनी मुरब्बा
करा मुझको अपना तू दीदार छत पर
गया उसके घर पे जो छुपते छुपाते
बहुत ही कुटा मैं पड़ी मार छत पर
न तारे दिखे फ़िर हुआ चाँद ग़ायब
सुनी हड्डियों की जो झंकार छत पर
मिलाकर उसे फ़िर हुई पाँच बहनें
मना रक्षाबंधन का त्यौहार छत पर
2.
न बाबा की खटिया न दस्तार छत पर
मगर है दुआओं का अम्बार छत पर
मसाले सुखाती न कपड़े सुखाती
न अम्मा का होता है दीदार छत पर
बिकी गाय बकरी गया शहर बेटा
न रोना झगड़ना न ललकार छत पर
पड़ी हैं दरारें उगे झाड़ झंकड़
बसे आज चूहों के घरबार छत पर
न करते कबूतर गुटरगूँ वहाँ अब
न दाना न पानी न वो प्यार छत पर
न कड़ियों में झूले न चिडियों की चूं चूं
लगे मकडियों के हैं बाज़ार छत पर
डराती है बारिश डराती है आँधी
लटकती हुई डर की तलवार छत पर
मौलिक एवं अप्रकाशित
राजेश कुमारी राज
Comment
आद० समर भाई जी आपको गज़लें अच्छी लगी बहुत बहुत शुक्रिया आपकी बात सही है शेर में संशोधन कर लुंगी .बाकी झंकार की बात है वो सिर्फ हास्य का पूत लाने के लिए किया है जैसे एक कहावत भी है हड्डियाँ कीर्तन करने लगी ये सिर्फ परिकल्पना है जो हास्य के लिए की गई है
आदरणीय राजेश कुमारी जी,
एक ही रदीफ पर दो अलग अलग गज़ल अच्छी लगी। एक में हास्य तो दूसरी में टीस का बहुत सुंदर चित्रण हुआ है। सुंदर लेखन के लिए बधाई आपको।
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,दोनों ग़ज़लें अच्छी हुई हैं,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
'बताकर तू पढ़ती ख़बर नौकरी की
चली आना लेकर तू अख़बार छत पर'
इस शैर का ऊला मिसरा यूँ कर लें तो मफ़हूम स्पष्ट होगा,गेयता भी बढ़ेगी:-
'पढेंगे ख़बर मिलके हम नोकरी की'
'सुनी हड्डियों की जो झंकार छत पर'
हड्डियों की झंकार नहीं होती बहना, ग़ौर करें ।
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