रूप सँवरा और खुशबू है बनेली जिस्म की
हो गयी है क्यों हवस ही अब सहेली जिस्म की।१।
ये शलभ यूँ ही मचलते पास तब तक आयेंगे
जब तलक यारो जलेगी लौ नवेली जिस्म की।२।
ये चमन ऐसा है जिसमें साथ यारो उम्र के
सूखती जाती है चम्पा औ'र चमेली जिस्म की।३।
रूप का मेहमान ज्यों ही जायेगा सब छोड़ के
हो के रह जायेगी सूनी ये हवेली जिस्म की।४।
रूह कहती है करो मत रूप का रसपान पर
छूटती है कब भला यूँ जिद हठेली जिस्म की।५।
शेष दुनिया तो फँसी है ढूँढने में इस का हल
तर गया वो बूझ बैठा जो पहेली जिस्म की।६।
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
आ. भाई पंकज जी,सादर अभिवादन। गजल पर आपकी आत्मीय व मनोहारी प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर एक बेहतरीन गजल से मंच को नवाजने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया
आ. सुरेंद्र जी,सादर अभिवादन। गजल पर आपकी आत्मीय व मनोहारी प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार ।
आद0 लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी सादर अभिवादन। बढिया और एक अलग टाइप की ग़ज़ल कही आपने जनाब, क्या कहने। बधाई स्वीकार कीजिये
आ. भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन । गजल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद ।
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन । गजल के अनुमोदन और स्नेह के लिए आभार ।
ये शलभ यूँ ही मचलते पास तब तक आयेंगे
जब तलक यारो जलेगी लौ नवेली जिस्म की। ------- अति सुंदर एवं सत्य।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, बहुत सुंदर एवं सत्य का बयान करती इस रचना के लिए बहुत बहुत बधाई।
शेष दुनिया तो फँसी है ढूँढने में इस का हल
तर गया वो बूझ बैठा जो पहेली जिस्म की
वाह आदरणीय लक्ष्मण जी वाह क्या अशआर कहे हैं आपने .... वास्तव में जिस्म की पहली तो कभी हल ही नहीं हुई। इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।
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