मनुज पशु पक्षी और जंतु,
एक ही सबका जीवन दाता,
धनी हो या फिर निर्धन कोई,
मरघट अंतिम ही सुख् दाता ।
भोर से लेकर सांझ तलक शव,
मरघट में आते रह्ते हैं,
चंद्न लकडी घी पावक मिल,
भस्म उसे करते रहते हैं ।
मूषक पिपिलिका कपोत उपाकर,
व्रीही खाकर जीवीत रहते हैं,
दूषित समझ मनुज जो छोडे,
वो जल पी जीवीत रहते हैं ।
उचित अनुचित तो ये भी जाने,
मनुज के मन को भी पहचाने,
पाप पुण्य का ज्ञान इन्हे भी,
पर भूखा पेट तो कुछ ना जाने ।
अगर नहीं हो पुण्य लालसा,
मनुज नहीं कुछ करने वाला,
पाप के भय से भयातुर मन को,
स्वय मनुज है छ्लने वाला ।
-प्रदीप भट्ट-
मौलिक एवम अप्रकाशित
-(मित्र की माता जी के निधन पर शमशान में जलती हुई चिता के निकट कबूतरो को चावल चुगते देख्कर जो भाव उत्पन्न हुए उन्हे शब्दो में ढालने का प्रयास)
Comment
श्मशान ऐसी जगह है जहाँ जाकर वैराग्य उत्पन्न हो जाता है ....फिर भी आपकी भावना का शब्दों में निरूपण बेहतरीन ढंग से किया है, आदरणीय प्रदीप भट्ट जी.
आद0 Pradeep Devisharan Bhatt जी सादर अभिवादन। अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार कीजिये। कुछ जगहों पर टंकण त्रुटि है। जैसे जीवित शुद्ध है
आपका बहुत बहुत आभार
जनाब प्रदीप भट्ट साहिब आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
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