मुख़्तलिफ़ हमने यहाँ सोच के पहलू देखे
अक़्ल हैरान है,ऐसे मियाँ जादू देखे
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आदमी शह्र में हैरान परेशाँ देखा
जब कि जंगल में बिना ख़ौफ़ के आहू देखे
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जब अमावस को गया चाँद मनाने छुट्टी
नूर फ़ैलाने को बेताब से जुगनू देखे
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दिल में इंसान के अल्लाह नदारद देखा
और हैवान बने आज के साधू देखे
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प्यार अहसास है,महसूस किया जाता है
कैसे मुमकिन है कोई चश्म से ख़ुशबू देखे
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रोटियाँ थोक में मिलती हैं कहीं कूड़े में
और कहीं भूख़ से दम तोड़ते 'चंदू ' देखे
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शान से बेटी को रुख़्सत यहाँ करता कोई
और दुख़्तर को कहीं बेचते अब्बू देखे
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दिन कभी ऐसा न आये किसी अब्बू पे 'तुरंत'
कोई फ़र्ज़न्द की मय्यत सरे-बाजू देखे
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
०१/०३/२०१९
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
भाई बृजेश कुमार 'ब्रज' जी ,
हार्दिक आभार और अभिनंदन आपका।
बहुत ही खूब ग़ज़ल कही है आदरणीय..वाकई में बेमिसाल
आदरणीय Samar kabeer साहेब आदाब | रचना की सराहना और हौसला आफ़जाई के लिए सादर आभार | आप द्वारा दिए गए सभी सुझाव निश्चित रूप से बहुत ही सुन्दर है | तदनुसार संशोधन कर रहा हूँ |
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'खूब हैरत से थे लबरेज़ वो जादू देखे'
इस मिसरे को यूँ कर लें गेयता बढ़ जाएगी,और भर्ती के शब्द भी निकल जाएंगे:-
'अक़्ल हैरान है,ऐसे मियाँ जादू देखे'
'प्यार एहसास है महसूस फ़क़त होता है'
इस मिसरे को यूँ कर लें,गेयता बढ़ जाएगी:-
'प्यार अहसास है,महसूस किया जाता है'
'कौन किस घर में है बैठा हुआ राहू देखे'
इस मिसरे पर थोड़ा विचार करें ।
'दिन कभी ऐसे न आये किसी अब्बा के 'तुरंत''
इस मिसरे को यूँ कर लें:-
'दिन कभी ऐसा न आये किसी अब्बू पे 'तुरंत'
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