खिजाँ ने गुलशनों में दर्द यूँ बिखेरे हैं
चमन के बागबाँ के बच्चे आज भूखे हैं
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बहार तुझ पे है दारोमदार अब सारा
कि फूल कितने चमन में ख़ुशी के खिलते हैं
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अजीब शय है तरक़्क़ी भी लोग जिस के लिए
ज़मीर बेच के ईमान बेच देते हैं
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क़ुबूल कर ली खुदा ने हर इक दुआ जब भी
दुआ में ग़ैर की खातिर ये हाथ उट्ठे हैं
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नहीं है कोई अगर आप के ख़यालों में
तो इंतज़ार में क्यों चश्म के दरीचे हैं
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वो शख़्स काम को अंज़ाम किस तरह देगा
जिसे न ठीक से आगाज़ के सलीके हैं
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किताब-ए-दिल को न पढ़ने का आज दावा कर
घिसे हैं लफ़्ज़ कहीं और कोरे पन्ने हैं
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अजीब खेल है भगवान तेरी क़ुदरत का
कि जा-ब-जा तेरे दीदार पर भी पहरे हैं
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'तुरंत ' अब न ज़माना है चिलमनों में रहें
हमारी बेटियाँ भी कम नहीं किसी से हैं
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय Samar kabeer साहेब | आदाब ,आपकी हौसला आफ्जाई के लिए दिली शुक्रिया | आपने सही फ़रमाया दो बार बेच का प्रयोग मुझे भी खटक रहा था लेकिन कुछ सुझा नहीं | आपने समस्या हल कर दी |
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'ज़मीर बेच के ईमान बेच देते हैं'
इस मिसरे में 'बेच' शब्द दो बार खटकता है,आप चाहें तो यूँ कर सकते हैं:-
'यहाँ पे देखिये ईमान बेच देते हैं'
आदरणीय सतविन्द्र कुमार राणा जी ,
आपकी सुंदर प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन हुआ। हार्दिक आभार।
आदरणीय गहलोत जी सादर नमन! हार्दिक बधाई स्वीकारें!
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