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सजती चुनाव में यहाँ जब तस्तरी बहुत - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/२२२/१२१२


सजती चुनाव  में  यहाँ  जब  तस्तरी बहुत
फिर भी बढ़े है रोज क्यों ये भुखमरी बहुत।१।


उतरा न मन का मैल जो सियासत ने भर दिया
दे कर  भी  हमने  देख  ली  है  फ़िटकरी बहुत।२।


अब खेल वो दिखाएगी उसको चुनाव में
जनता से जिसने है करी बाज़ीगरी बहुत।३। 


नेता न आया  एक  भी  सेवा  की राह पर
लोगों ने कह के देख ली खोटी खरी बहुत।४।


क्या होगा उनके राज का जनता बतायेगी
करते सदन में जो रहे गत मशखरी बहुत।५।


आता नहीं है दुख नजर निर्धन का क्यों हमें
जब  से   हुई   है   जिन्दगी   लग्जरी  बहुत।६।


होता नहीं है कम यहाँ थोड़ा भी मनमुटाव
वैसे  सुलह  के  लिए  बिछती  दरी  बहुत।७। 


मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on May 5, 2019 at 11:26am

//जब  से   हुई   है  जिन्दगी  यूँ  लग्जरी बहुत'//

ये मिसरा अब ठीक है,और बाक़ी के मिसरे?

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 5, 2019 at 6:25am

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और मार्गदर्शन के लिए आभार।

इस मिसरे की बह्र को पुनः देखिएगा

जब  से   हुई   है  जिन्दगी  यूँ  लग्जरी बहुत'

Comment by Samar kabeer on May 2, 2019 at 11:35am

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

'सजती चुनाव  में  यहाँ  जब  तस्तरी बहुत'

इस मिसरे में 'तस्तरी' को "तश्तरी" कर लें ।

'करते सदन में जो रहे गत मशखरी बहुत'

इस मिसरे में 'मशख़री' को "मसख़री" कर लें ।

 
'जब  से   हुई   है   जिन्दगी   लग्जरी  बहुत'

इस मिसरे की बह्र चेक करें ।


'वैसे  सुलह  के  लिए  बिछती  दरी  बहु'

ये मिसरा लय में नहीं है और इसमें सहीह शब्द "सुल्ह" है,मिसरा चाहें तो यूँ कर सकते हैं:-

'वैसे तो सुल्ह के लिए बिछती दरी बहुत

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 2, 2019 at 5:27am

आ. भाई सुरेंद्रनाथ जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 2, 2019 at 5:25am

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन।गजल पर उपस्थिति व स्नेह के लिए आभार।

Comment by नाथ सोनांचली on May 1, 2019 at 6:22pm

आद0 लक्ष्मण धामी मुसाफिर धामी जी सादर अभिवादन।  बढिया ग़ज़ल कही आपने। बधाई स्वीकार कीजिये

Comment by Sushil Sarna on May 1, 2019 at 3:18pm

होता नहीं है कम यहाँ थोड़ा भी मनमुटाव
वैसे सुलह के लिए बिछती दरी बहुत।७।

वाह आदरणीय लक्ष्मण धामी जी , हकीकत की जमीन पर लिखी इस खूबसूरत ग़ज़ल के दिल से मुबारकबाद।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 30, 2019 at 7:47pm

आ. भाई बसंत जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद । शेष जो कुछ भी नवीन नजर आता है वह ओबीओ के आप जैसे समस्त प्रेरणाशील और मार्गदर्शक सदस्यों के स्नेह का ही परिणाम है । सादर...

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 30, 2019 at 7:43pm

आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। उत्साहवर्धन के लिए आभार।

Comment by बसंत कुमार शर्मा on April 30, 2019 at 2:06pm

आदरणीय लक्षण धामी साहब -सादर नमस्कार , काफियों में नवीनता और उनका सटीक निर्वाह, आनंद आ गया , बधाई हो आपको  

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