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जाते हो बाजार पिया तो 

दलिया ले आना

आलू, प्याज, टमाटर 

थोड़ी धनिया ले आना

आग लगी है सब्जी में 

फिर भी किसान भूखा

बेच दलालों को सब 

खुद खाता रूखा-सूखा

यूँं तो नहीं ज़रूरत हमको 

लेकिन फिर भी तुम 

बेच रही हो बथुआ कोई बुढ़िया 

ले आना

जैसे-जैसे जीवन कठिन हुआ 

मजलूमों का

वैसे-वैसे जन्नत का सपना भी 

खूब बिका 

मन का दर्द न मिट पायेगा

पर तन की ख़ातिर

थोड़ा हरा पुदिना

थोड़ी अँबिया ले आना

धर्म जीतता रहा सदा से

फिर से जीत गया

हारा है इंसान हमेशा

फिर से हार गया

दफ़्तर से थककर आते हो

छोड़ो यह सब तुम

याद रहे तो

इक साबुन की टिकिया ले आना

----------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Balram Dhakar on October 20, 2019 at 12:26am

इस सुंदर प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें, आदरणीय धर्मेंद्र जी। 

सादर। 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2019 at 10:51am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय TEJ VEER SINGH जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2019 at 10:51am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय Samar kabeer जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2019 at 10:44am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2019 at 10:43am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय indravidyavachaspatitiwari जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2019 at 10:43am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 16, 2019 at 7:59pm

आ. भाई धर्मेन्द्र जी, बेहतरीन नवगीत हुआ है । हार्दिक बधाई।

Comment by indravidyavachaspatitiwari on October 15, 2019 at 3:49pm

मंहगाई पर कटाक्ष करने के लिए आपको बधाई। इतनी सुंदर कविता से मन प्रसन्न हो गया।

Comment by Dr. Vijai Shanker on October 12, 2019 at 4:22am

आदरणीय धर्मेंद्र कुमार जी , बधाई , इस सुन्दर प्रस्तुति पर। सादर।

Comment by Samar kabeer on October 11, 2019 at 8:21pm

जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी आदाब,बहुत अच्छा नवगीत लिखा आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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