ठण्डी गहरी चाँदनी
चिंताओं की पहचानी
काल-पीड़ित
अफ़सोस-भरी आवाज़ें ...
पेड़ों से उलझी रोशनी को
पत्तों की धब्बों-सी परछाई से
प्रथक करते
अब महसूस यह होता है
सपनों में
सपनों की सपनों से बातें ही तो थीं
हमारा प्यार
या उभरता-काँपता
धूल का परदा था क्या
विश्वासों में पला हमारा प्यार
आईं
व्यथाओं की ज़रा-सी हवाएँ
धूल के परदे में झोल न पड़ी
वह तो यहाँ वहाँ
कण-कण जानें कहाँ गया
झड़ गया
या, सपना था
खुलना था, खुल गया
उड़ते-उड़ते भटकते
कुछ-एक कण
ठहर गए आँखों के कोरों में
किरकिरी-से अटके
रात-बेरात तब से
अब बेचैन बीतती है रात
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, मित्र फूल सिंह जी।
इतनी सुविचारित सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, मित्र विजय शंकर जी।
एक सुंदर रचना के लिए आपको बहुत बहुत बधाई
आदरणीय विजय निकोर जी , “ जगत मिथ्या ” के दर्शन पर लिखी आपकी यह रचना “काल पीड़ित”होने का सहीं अंकन कर रही है , अंत में सबकुछ ऐसे ही एक भ्रम सा लगता है , क्योंकि हाथ कुछ लगता नहीं हैं। यादें भी सिर्फ और सिर्फ हमारी ही होती हैं , हम उन्हें ज़िंदा रखना चाहें या हम हीं उन्हें विस्मृत करें और मिट जाने दें।
आप सदैव ही बहुत गहरी और गंभीर रचनाएं रचते हैं , इसके लिए भी बहुत बहुत बधाई , सादर।
इस सुन्दर सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, मित्र सुरेन्द्र नाथ जी।
ऐसी मनोहर सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, भाई समर कबीर जी।
आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन। बढ़िया भाव सम्प्रेषण के साथ उम्दा कलमकारी। बधाई निवेदित है। सादर
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,आपने ख़ूबसूरत शब्दों से बहुत उम्द: मंज़र कशी की है और अपने भावों को बहतर तरीक़े से पेश किया है,इस सुंदर कविता के लिए बधाई स्वीकार करें ।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, मित्र सुशील जी।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, मित्र लक्ष्मण धामी जी
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