३ क्षणिकाएँ :
दूर होती गईं
करीब आती आहटें
शायद
घुटनें टेक दिए थे
साँसों ने
इंतज़ार के
.............................
दूर चला जाऊँगा
स्वयं की तलाश में
आज रात
जाने किसके बिम्ब में
हो गया है
समाहित
मेरा प्रतिबिम्ब
..............................
हां और न के
लाखों चेहरे
हर चेहरे पर
गहराती झुर्रियाँ
हर झुर्री
विरोधाभास को जीतने की
दफ़्न तहरीर
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय vijay nikore जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से अलंकृत करने का तहे दिल से शुक्रिया।
बहुत ही सुन्दर क्षणिकाएँ कही हैं। हार्दिक बधाई, मित्र सुशील जी।
आदरणीय Mahendra Kumar जी सृजन पर आपकी ऊर्जावान प्रतिक्रिया का दिल से आभार।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी सृजन पर आपकी ऊर्जावान प्रतिक्रिया का दिल से आभार।
तीनों ही क्षणिकाएँ उम्दा हुई हैं आदरणीय सुशील सरना जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
आद0 सुशील सरना जी सादर अभिवादन। बेहतरीन क्षणिकाओं के लिए बधाई स्वीकार कीजिये
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब ... सृजन पर आपकी ऊर्जावान एवं सुझावात्मक प्रतिक्रिया का तहे दिल से शुक्रिया। आपकी तीक्ष्ण दृष्टि का मैं कायल हूँ। मैं इस संशोधित कर पुनः प्रेषित करता हूँ। हार्दिक आभार।
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी सृजन पर आपकी ऊर्जावान प्रतिक्रिया का दिल से आभार।
जनाब सुशील सरना जी आदाब,उम्द: क्षणिकाएँ लिखीं आपने,बधाई स्वीकार करें ।
'दूर होती गई'
इस पंक्ति में 'गई' को "गईं" कर लें ।
'लाखो चेहरे'--'लाखों'
अंतिम पंक्ति में 'दस्तावेज़' शब्द स्त्रीलिंग है,देखियेगा ।
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन । सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
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