भ्रम जाल ये कैसा फैला
खुद को खुद ही भूल चुका
ना वाणी पर संयम किसीका
उर में माया, द्वेष भरा |
कोह में अपना विनती भाव भुलाया
जो धैर्य भी से दूर हुआ
गरल इतना उर में भरा है कि
क्षमा, प्रेम करना ही भूल गया |
करुणा दया भी पास नहीं अब
पशुत्व के जैसा बन चुका
भलाई का दामन ओढ़ की जाने
पीठ पीछे चुरा घोप रहा |
आत्महित में अनेत्री बन गए जैसे
भयंकर बैर का कालकूट पिया
धर्म निरपेक्षता भूल चुका कैसे
खुदा ने सबको पैदा किया |
जाने कैसी मजबूरी और
संस्कार को अपने भूल चुका
अभी भी वक़्त है थोड़ा सुधर जा
रोएगा कहीं अकेला खड़ा |
“मौलिक व अप्रकाशित”
Comment
आप सभी ने मेरी रचना के लिये समय निकाला उसके आप सबका शुक्रिया
जनाब फूल सिंह जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
रचना अच्छी लगी। बधाई मित्र फूल सिंह जी।
आ. भाई फूलसिंह जी, अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई।
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