किस सागर में जान मिलेगी धार समय की
कौन पकड़ पाया जग में रफ़्तार समय की
युगों युगों तक फैला है कुहसार वसन का कुहसार =पर्वतांचल
कौन अज़ल से बाँध रहा दस्तार समय की दस्तार = पगड़ी
नोक कलम की पर रखते हैं काल तीन हम
केवल हमने स्वीकारी ललकार समय की
ख़ार दर्द के चुनकर गीत उगायेंगे हम
कर जायेंगे वादी हम गुलज़ार समय की
तू ऊषा की लाली मैं संध्या का केसर
तेरे मेरे बीच खड़ी दीवार समय की
मोल जानते हैं माटी का हम बंजारे
धाक जमेगी क्या हम पर ज़रदार समय की ज़रदार = धनी \मालदार
मान गँवाकर सोना -चाँदी मिट्टी समझो
रूह खरीदोगे क्या तुम ख़ुद्दार समय की
ये माह-ओ-' खुरशीद ' सितारे इस अंबर के
सदियों से करते आये बेगार समय की
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज सर ,आदरणीय सौरभ सर आप जैसे विशाल बरगदों की छाया , कलम को सदा तरोताज़ा रखती है |आशीर्वाद बनाये रखियेगा |सादर
आदरणीय हरिप्रकाश जी सर सादर आभार स्नेह बनाये रखियेगा |आदरणीय सुशील सरना जी सर हार्दिक आभार आपके स्नेह अनमोल है |सादर
आदरणीय खुर्शीद भाई , गज़ल की दूसरी किश्त भी बे मिसाल हुई है , हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
तू ऊषा की लाली मैं संध्या का केसर
तेरे मेरे बीच खड़ी दीवार समय की
ये माह-ओ-' खुरशीद ' सितारे इस अंबर के
सदियों से करते आये बेगार समय की ---- बहुत खूब ! आदरणीय बधाई
तू ऊषा की लाली मैं संध्या का केसर
तेरे मेरे बीच खड़ी दीवार समय की
उफ्फ गजब की कल्पना और शानदार प्रस्तुति … हम दिल से आपकी इस प्रस्तुति को सलाम करते हैं आदरणीय … हार्दिक बधाई
तीनों कालों को हम रखते कलम-नोंक पर
केवल हमने स्वीकारी ललकार समय की
और
सोना-चाँदी मिट्टी है जब मान गया तो
क्या तुम रूह खरीदोगे ख़ुद्दार समय की
उपर्युक्त बदलाव कैसे रहेंगे, बताइयेगा. हमने बस अपनी कही भर है. अलबत्ता, प्रस्तुति के इस वाले भाग में वाकई ग़ज़ल हुई है, भाई ! फिरभी गीतात्मकता के देसीपन की छौंक खूब लगी है !
युगों युगों तक फैला है कुहसार वसन का
कौन अज़ल से बाँध रहा दस्तार समय की
तू ऊषा की लाली मैं संध्या का केसर
तेरे मेरे बीच खड़ी दीवार समय की
वाह वाह वाह !
और फिर मक़्ता में अपने नाम को क्या ही ख़ूबसूरती से पिरोया है आपने, भाई ! बहुत खूब !!
रूह खरीदोगे क्या तुम ख़ुद्दार समय की .......आदरणीय खुरशीद जी , जगब की कल्पना , सुन्दर रचना पर हार्दिक बधाई !
आदरणीय गोपालनारायण जी सर ,इसी आशीर्वाद और इस्लाह के प्रसाद की चाह इस मंच पर खींच लाती है |धन्य है आपकी कलम |अगर आपकी अनुमति हो तो मैं आपके इस स्नेह-प्रसाद को अपने शेर के ऊला मिसरे के रूप में प्रयोग कर लूं |इतना कृपाकांक्षी तो शायद यह अनुज होगा ही |सादर अभिनन्दन
नोक कलम की प्रखर काल त्रय पर हम रखते
केवल हमने स्वीकारी ललकार समय की -------------- वामनकर जी की इच्छा मैंने पूरी कर दी i सादर i बहुत बहुत बधाई i
आदरणीय सोमेश जी , मिथिलेश सर जी हार्दिक आभार |
आदरणीय मिथिलेश जी " तीनों काल कलम की नोक पे' हम रखते हैं " करता हूं तो पे की मात्रा गिरानी पढ़ेगी ,अगर यह रूप पहले वाले से कुछ स्वीकार्य हो तो मंच की अनुमति चाहूँगा | सादर
तू ऊषा की लाली मैं संध्या का केसर
तेरे मेरे बीच खड़ी दीवार समय की
मोल जानते हैं माटी का हम बंजारे
धाक जमेगी क्या हम पर ज़रदार समय की \बहुत सुंदर प्रस्तुति भाई जी
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