ग़ज़ल- 8 + 8 + 8 (रोला मात्रिक)
किस सागर में जान मिलेगी धार समय की
कौन पकड़ पाया जग में रफ़्तार समय की
मोल समय का उससे जाकर पूछो माधो
नासमझी में जिसने झेली मार समय की
जीवन नैया पार हुई बस उस केवट से
कसकर थामी जिसने भी पतवार समय की
आलस छोड़ो साहस धारो कर्म करो तुम
उठ जाओ अब सुनकर तुम फटकार समय की
कद्र तुम्हारी ये संसार करेगा उस दिन
कद्र करोगे जिस दिन बरखुर्दार समय की
पल घुँघरू है दिवस -निशा दो पायल समझो
गूंज रही है सदियों से झंकार समय की
अवसर देता वक़्त सभी को नृप बनने का
दुर्भागी ठुकरा देते मनुहार समय की
काट रही है सदियों से जंगल भावी के भावी = भविष्य काल
पैनी होती जाती है तलवार समय की
तुम 'खुरशीद' उजाले बोते जाओ हर पल
जीतोगे तुम इक दिन होगी हार समय की
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ सर ,आपका स्नेहमयी आशीर्वाद ही मुझे निरंतर अच्छा और विशुद्ध लिखने को प्रेरित करता रहता है |सादर आभार |मैं आपकी विवेचना का तनिक भी खंडन नहीं करना चाहता ,अपितु दृढ़ हूं कि --रोला में --क़) ११--१३ के विश्राम के साथ २४ मात्राएँ हो ख )अंत में २१ वर्जित हो ग )समप्रवाहिता की रक्षा हेतु ११ वाले खंड के बाद एक त्रिकल रखा जाये |घ ) कहीं कहीं ८-८-८ तथा १२-१२ की यति का भी विधान है | लेकिन मैं कुछ संशयों पर मार्गदर्शन का अभिलाषी हूं |
१.शास्त्रों के अनुसार समरसता (monotony) की रक्षा हेतु दो तरह की यति का विधान है , क़ ) पादांत यति ख ) अंतर्यति
"किंतु भाव एवम् विचारों के अनुसार शास्त्र निश्चित स्थानों के अतिरिक्त जो यति दी जाती है वह अर्थ यति है" ( आदरणीय गौरीशंकर मिश्र 'द्विजेन्द्र ' , छंदों-दर्पण ) अर्थ यति हेतु प्राचीन आचार्यों ने कोई विशिष्ट नियम नहीं बाँधें हैं ,यह रचनाकार को भावानुकूल स्वछंदता प्रदान करती है ,यथा --क़ )जीवन की \सुखदायिनी \प्राणाधिके \प्राणप्रिये (गुप्त )में हरिगीतिका की १६-१२ की यति भंग करते हुये ,अर्थ यति अनुसार ७-१४-२१-२८ की यति ली है | ख ) नीचे जल था \ऊपर हिम था \एक तरल था \ एक सघन (प्रसाद ) में ताटक की १६-१४ की यति के विपरीत ८-८-८-६ की अर्थ यति ली है |
२.तेज कृ \सानु दोष महि \षेसा और वसन वि \चित्र पाँवड़े \परहीं में अनिवार्य लघु की पदों के मध्य टूटन देखने को मिलती है |
३. किसी पेड़ पर \नहीं चाँदनी \----मन पंछी कित \ ना उदास है (क़तील शिफाई ) में गुरु की भी रुक्नो में टूटन देखने को मिली है |
मेरे संशय मेर अत्यधिक \अनावश्यक अध्ययन से ही निर्मित हुये है |स्वाध्याय की अति ने शायद मेरी मति को हर लिया हो |समाधान स्वरूप इसे या पूर्व रचना को रोला मात्रिक न कहकर यदि रोला -आधृत सुगम ग़ज़ल कहूँ तो शायद मुझे आपका आशीर्वाद अनवरत मिलता रहेगा | मैंने कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया है ,क्यूंकि मैं आदरणीय अग्रजों की इस्लाह को निर्विवाद रूप से स्वीकार्य मानता हूं ,यह सब केवल नये साधकों के मार्गदर्शन हेतु निवेदित किया गया है |
मैं आपको आश्वश्त करता हूं कि रचनाओं में शास्त्रीय विधानों का यथा संभव मान रखने का प्रयास करूंगा |पुनः हृदय -तल से सादर आभार के साथ स्नेहाकांक्षी -अनुज
आदरणीय विजयशंकर सर ,ग़ज़ल आप तक पहुँची , इसका लिखा जाना सार्थक हुआ |हृदयतल से आभार |सादर
आदरणीय ख़ुर्शीद भाई, आपकी कहन जब उछाह में हो न .. तो बस बहा ले जाती है !
आपकी प्रस्तुतियों पर आने में विलम्ब भले हो जाय, भइया, पर मैं बाट जरूर जोहता रहता हूँ.
इस प्रस्तुति को ग़ज़ल के तथाकथित मानकों पर रख कितना प्रतिशत ग़ज़ल कहूँ, यह साझा करना मेरे लिए भी सहज नहीं है. लेकिन देसी रचनाओं की अंतर्धारा को क्रोड़ में समेटे यह ग़ज़ल भावभूमि की वह हरीतिमा तारी करती है, जिससे हो कर बहती हुई मनोरम बयार बस मद्धिम-मद्धिम बतियाती चली जाती है - हौसले देती हुई, ऊँच-नीच समझाती हुई !
बधाई-बधाई-बधाई !
अब प्रस्तुति के शिल्प पर.. एक बार अपने पहले भी किसी ग़ज़ल के बर्ताव को लेकर ’मात्रिक रोला’ जैसा कुछ लिख दिया था और मैं समझ नहीं पाया था, आपके भरसक समझाने के बावज़ूद. फिर वही कुछ हुआ है.
भाईजी, मिसरे के वज़न को बारह ग़ाफ़ का क्यों नहीं कहें ? क्यों कि आठ-आठ मात्राओं की यति का कई जगह अतिक्रमण हुआ है. तब तो शिकस्त को ही मुँह की खानी पड़ी न ? फिर इस शिकस्ते नारवा का हम क्या करें ! मगर नहीं.. यह फेलुन फेलुन.. पर सधी ग़ज़ल है, ऐसी कोई सूरत नहीं बनती यहाँ. फिर स्वयं पर आपने यह ’बवाल’ क्यों मोल लिया है ? और रोला की सही बात करूँ तो उसकी शास्त्रीयता मात्र २४ मात्राओं तक सीमित नहीं है. ११-१३ को भी मैं उसका ’अनिवार्यतम’ हिस्सा मानता हूँ.
जय-जय !!
आदरणीय शरद सिंह जी , रचना पर स्नेह बरसाने हेतु सादर आभार |मेरी समझ से मैंने इसमें भविष्यकाल को एक सघन वन माना है , जैसे जैसे समय की तलवार चलती है भविष्य काल वर्तमान \भूत में बदल जाता है अर्थात नष्ट हो जाता है ,अनंत भावी-वन काटकर भी समय की तलवार भौथरी नहीं होती है |
काट रही है सदियों से जंगल भावी के
पैनी होती जाती है तलवार समय की
शायद मेरे भाव आप तक पहुँचे हो ,यदि कल्पना थोड़ी भी भाए तो कृपया स्नेह बरसावें |सादर
आदरनिये मिथिलेश जी , आदरणीय राहुल डांगी जी आप का हृदयतल से आभार |आपने रचना को इतना सरसरी से पढ़ा |आपका कहना वाज़िब है , आलोच्य पंक्ति में "तुम" अतिरिक्त हर्फ़ है ,यह टाइपिंग त्रुटि से नहीं हुआ है , यहाँ दो मात्रा ज्यादा हो गई है |कृपया इसे "कद्र करोगे जिस दिन बरखुर्दार समय की " के रूप में स्वीकार करने की कृपा करें |एक बार पुनः सादर आभार
आदरणीय हरिप्रकाश सर जी ,गोपालनारायण सर जी ,शिज्जू शकूर सर जी , दिनेश कुमार सर जी ,सोमेश कुमार जी कंवर करतार सर जी आप सभी का हृदय की गहराइयों से आभार और अभिनन्दन |आप सभी का स्नेह मेरे लिए अनमोल है |मुझे कभी इस दौलत से वंचित मत कीजियेगा |सादर
आदरणीय श्याम नारायण जी , हृदयतल से आभार |
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