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एक लघु साहित्यिक - संस्मरण --- डॉ o विजय शंकर

साहित्य और हम , साहित्य और स्वयं हम। सोंचें तो कितने जुड़े हैं साहित्य से हम। कितना प्रभाव डालता है साहित्य हम पर , कितना हम दे पाते हैं उसे , वापस।
कथा-कहानी साहित्य की मेरी जीवन यात्रा " पराग " से शुरू हई थी , पचास के दशक के आख़िरी कुछ वर्षों से , नई मुद्रा का प्रचलन 01 अप्रेल 1957 से शुरू हुआ था।नैये पैसे , न जाने कैसे मुझे आज भी याद है , पराग काफी समय तक चालीस पैसे ( नैये पैसे ) में आती थी लेकिन काफी बड़ी और सुन्दर पत्रिका होती थी , मुझे यत्र - तत्र कुछ-कुछ याद है , शायद सबसे अधिक छोटू - लम्बू , फिर कुछ और बड़ा हुआ तो चन्दा मामा , जिसकी कहानियां कुछ बड़े बच्चों के लिए होती थीं , बड़ी और अधिक प्रेरणादायक। मैं अभी भी महसूस करता हूँ कि अपने जीवन में बहुत प्रेरक बातें मैंने इन्हीं दो ( बाल ) पत्रिकाओं से सीखीं। यह भी जाना कि समाज की कुछ बुराईयाँ पुरानी हैं ,और बस , समय के साथ चलती हैं , बस चलती रहतीं हैं , क्योंकि हम उन्हें चलाते रहते हैं।

बचपन कब बीता और कब हम " धर्मयुग " और " साप्ताहिक हिन्दुस्तान " पढ़ने लगे , आज बता पाना मुश्किल है , पर यह पत्रिकाएं हमारे घर पर नियमित आतीं थी क्योंकि हमारी माता जी को स्वयं पढ़ने का बहुत शौक था , साथ में " कादम्बनी " " नवनीत " भी आया करती थी। " इलेस्ट्रेटेड वीकली " और " फिल्मफेयर "अंग्रेजी में। वीकली के संपादक खुशवंत सिंह जी के चित्र मेरे मानस - पटल पर आज भी तभी से अंकित हैं। विख्यात व्यंगकार हरी शंकर परसाई जी का पुलिस पर लिखा मशहूर व्यंग का अंग्रेजी रूपांतरण में " Inspector Matadeen on moon " मैंने इलेस्ट्रेटेड वीकली में ही पढ़ा था , उसका काफी अंश मुझे आज भी याद है।

धर्मयुग का अपना ही एक स्थान था , उसमें " हाशिये पर " शीर्षक से एक स्तम्भ हुआ करता था जिसमें लोग क्षणिकाएँ लिखा करते , उसी में से एक मुझे कभी नहीं भूली ,
" लोग चाँद पर
चले गए ,
हमारा रास्ता
बिल्ली काट गई। "
इसी तरह " पिता जी , पिता जी , पिता जी " , एक बहुत लम्बी कविता, वह भी लोकप्रिय हुयी थी ,
" सुरसतिया की लाश मिली है नदी किनारे देवर जी " जैसी युग को समर्पित कविता , जिसने भी पढ़ी हो , कौन भूल सकता है। परदेश को नौकरी पर गए अपने देवर को गाँव से लिखी किसी भौजाई की एक चिठ्ठी , जिसमें वह घर - गाँव का सारा हाल लिखती है। उसकी इस एक पंक्ति ने जैसे सांस्कृतिक / आपराधिक / लाचारी / विवशता और उपेक्षित / तिरस्कृत समाज का चित्र उकेर कर रख दिया था।

धर्मयुग में ही पढ़ी एक कहानी की एक पंक्ति , " यदि आपके वस्त्र स्वच्छ , सफ़ेद , साफ़ - सुथरे हैं तो लोगों का एक वर्ग आप पर तरह तरह के कीचड़ उछालता रहेगा , और अगर आपके वस्त्र कीचड़ में सने हैं तो एक वर्ग हमेशा , लगातार , आपके वस्त्रों को धोता रहेगा , वस्त्रों के उज्जवल होने का ढिंढोरा पीटता रहेगा।"

पराग से सारिका तक की छोटी सी कथा - साहित्य की यात्रा में बहुत कुछ है जो मानस-पटल पर अंकित हो गया है , पर बहुत कुछ है जो सोचने को भी विवश करता है। दुनियाँ चाहे जितनी भी बदल गयी हो , नेट - आई टी का कितना भी विकास हो गया हो , कहीं तो लगता है कि कहीं कुछ भी तो नहीं बदला है , सब कुछ तो वैसा ही है ,
प्रगति के किसी भी प्रयाण के पहले बिल्ली हमारा रास्ता काट देती है . पिता जी के पुत्रों की भरमार है , वही नियामक हैं , उन्हीं को नियामक माना जा रहा है , मानना है। परसाई की पुलिस वैसी ही है , सुरसतिया की लाश कहीं भी कभी भी मिल जाती है , .... और कीचड़ से सने वस्त्रों में लिपटों को एक हुजूम उज्जवल वस्त्रधारी घोषित कर रहा है , उज्जवल वस्त्रधारी डरे-सहमें से रहते हैं कि कब कौन किस तरफ से कीचड़ न उछाल दे। सब कुछ वैसा ही है।

कितना साहित्य लिखा जाता है , लिखा जा चुका है , किसे प्रभावित कर रहा है ? सब कुछ तो वैसे ही है , लगभग एक अर्द्ध - शताब्दी तो मैंने देख ही ली।
प्रश्न उठता है कि क्या साहित्य समाज से इस कदर दूर है , दोनों में कोई मेल-मिलाप नहीं है , समाज साहित्य से कोसों दूर है , और साहित्य भी समाज से बहुत दूर है। न उस तक पहुंच पा रहा है और न उस तक अपनी बात पहुंचा पा रहा है। केवल कुछ तथाकथित सभ्रांतों तक बंध कर रह गया है।
अब यह मत कहियेगा कि सब लोग कहाँ पढ़ते हैं। हर समाज में , हर युग में , पठित वर्ग बहुत सीमित होता है , पर होता है और जबरदस्त होता है , साहित्यिक-चेतना को वही वर्ग जन- जन तक पहुंचा भी देता है , समाज को साहित्य से जोड़ भी देता है , बशर्ते उसमें ऐसी इच्छा हो , लगन हो , इच्छा - शक्ति हो। दुनियाँ में ऐसे भी उदाहरण हैं जहां कुछ शब्दों ने तहलका मचा दिया , जीवन का स्वरूप , सोचने के तरीके बदल दिए। कोस्टा रीका में जीवन - दर्शन , जीवन शैली बन चुका , शब्द- युग्म "पुरा विदा " कुछ नहीं , मेक्सिको की एक फिल्म का एक डायलॉग है , उसी को लोगों ने जीवन का आदर्श बना लिया है। " स्वंत्रता , समानता , भातृत्व " इन तीन शब्दों ने दुनियाँ को पुरातन युग से , पुरातन सोच से ,पुरातन शासन -पद्दति से , पुरातन जीवन-शैली से निकाल कर एक नवीन युग में पहुंचा दिया। पर जोड़िये तो समाज को इस सुन्दर साहित्य से।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Dr. Vijai Shanker on September 17, 2015 at 9:01pm
आदरणीय सुश्री प्रतिभा पांडे जी , स्मृतियों को पसंद करने और संस्मरण में सहभागिता के लिए आभार , सादर।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 17, 2015 at 1:14pm

आ० विजय सर --आपने अतीत  के कुछ सोये  तार जगा दिए . हम भी बह गए उस पुरानी साहित्य धारा  में . आपको साधुवाद .

Comment by pratibha pande on September 17, 2015 at 12:10pm

सच में अब धर्मयुग ,नवनीत ,साप्ताहिक हिन्दुस्तान ,चंदामामा और ,पराग जैसी पुस्तकों के स्तर की पुस्तकें अब कहाँ , पढ़ने की आदतें छूटती ही जा रही हैं , ,आपकी इस प्रस्तुति ने बचपन की कई यादें ताज़ा कर दी , धन्यवाद आपको इस प्रस्तुति पर सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 17, 2015 at 9:06am
प्रिय मिथिलेश जी , आभार एवं धन्यवाद , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 17, 2015 at 4:16am
आदरणीय विजय शंकर सर, दिल को छूती हुई कई बातें फिर सुनकर अच्छा लगा। आभार आपका इस प्रस्तुति के लिए।
Comment by Dr. Vijai Shanker on September 16, 2015 at 9:32am
बहुत सही बात कही आपने आदरणीय शिज्जु शकूर जी। फिर पढ़ना भी अलग अलग मकसदों से होता है , कुछ लोग सिर्फ इसलिए पढ़ते हैं कि जल्दी से नींद आ जाए। साहित्य की बात वे भी करते हैं। नई पीढ़ी बेशक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर बहुत आश्रित हो रही है पर किसी न किसी रूप में जानकारी बढ़ा रही है, हाँ , किताबों से दूर हो रही है। सच है। आपकी सहभागिता के लिए बहुत बहुत आभार , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on September 16, 2015 at 9:24am
आदरणीय सुश्री कान्ता रॉय जी , आपने संस्मरण को पसंद किया , आभार। साहित्य सीमित रह जाए और लोगों को प्रभावित न करे तो उसका लक्ष्य पूरा नहीं होता।
प्रस्तुत संस्मरण में आपकी सहभागिता के लिए बहुत बहुत आभार , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on September 16, 2015 at 9:19am
प्रिय कृष्ण मिश्रा जी , आपके विचारों से सहमत हूँ। साहित्य को समाज से जोड़ना और समाज को साहित्य से जोड़ना या समाज के हर तबके तक ले जाना ही साहित्य की सार्थकता है , अन्यथा लिखा तो वाकई में बहुत कुछ जाता है। हाँ एक बात और जब साहित्य समाज को एजुकेट नहीं करता या कर पाता तो समाज का हर आदमी अपने अपने तरफ से एजुकेट करने लगता है।
आपकी सहभागिता के लिए आभार , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 16, 2015 at 8:23am
आदरणीय डॉ विजय शंकरजी आपके इस संस्मरण ने तो मेरे बचपन की यादें ताज़ा कर दी हैं। तकनीकी उन्नति का एक विपरीत प्रभाव ये पड़ा है कि अब युवा वर्ग किताबों से विमुख होता जा रहा है
Comment by kanta roy on September 16, 2015 at 6:16am
पुरानी यादों के झरोखों में ले जाकर बहुत खूब बचपन की कथा कहानियों की संसार की सैर कराई है आपकी इस लेख ने ।साथ ही एक बहुत बडी़ चिंतन करने को भी विवश किया कि साहित्य की पहुँच मन - मस्तिष्क पर कितनी करती है । क्यों हर विषय पर लिखने के बावजूद भी बदलाव नजर नहीं आता कहीं भी ,क्या पाठक वर्ग सीमित है या .....। बहुत ही सुंदर और सार्थक रचना हुई है आदरणीय डा. विजय शंकर जी । बधाई

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