For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

वो आगे जाते रहे, हम पीछे जाते रहे - डॉo विजय शंकर

दुनियाँ में लोग
मन की गति से
अरमान पूरे करते रहे ,
जो चाहा उसे
हासिल करते रहे ,
हम हसरतों को
दबाने , मन मारने ,
के हुनर सिखाते रहे।
जो है उसे पाने में
वो जिंदगी पाते रहे ,
हम उसी को मिथ्या
और भ्रम बताते रहे।
वो गति औ प्रगति गाते रहे
हम सद्गति को गुनगुनाते रहे ,
वो आगे जाते रहे ,
हम पीछे जाते रहे ,
वो देश को सोने
जैसा बनाते रहे ,
हम देश को सोने की
चिड़िया बताते रहे ,
लोग उल्लुओं को
पास आने नहीं देते
हम हर गुलिस्तां
उल्लुओं से सजाते रहे ||

मौलिक एवं अप्रकाशित.
डा० विजय शंकर

Views: 527

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 21, 2015 at 6:14am
आदरणीय सुश्री वन्दना जी ,आपकी प्रशस्ति से उत्साह बढ़ा , आपका आभार , बधाई हेतु बहुत बहुत धन्यवाद , सादर
Comment by vandana on March 20, 2015 at 9:27pm

सार्थक व्यंग्य आदरणीय विजय सर बहुत २ बधाई 

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 20, 2015 at 9:08pm
आदरणीय सुश्री प्रतिभा जी , आपको रचना अच्छी लगी , आपका आभार. आपकी ढेरों प्रशस्तियों के लिए ढेरों धन्यवाद, सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on March 20, 2015 at 2:53am
आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी , आपको कविता अच्छी लगी, आपका आभार , आपकी सुभकामनाओं एवं बधाई हेतु धन्यवाद।सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on March 20, 2015 at 12:11am
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी , आपने कविता में अंतर्निहित विचारों को प्रकट एवं स्पष्ट करते हुए कविता की बहुत ही विशद विवेचना की है, आपका आभार। आपकी शुभकामनाओं बधाई हेतु धन्यवाद।
आपकी विवेचना का द्वितीय अनुच्छेद भी बहुत ही विशद एवं सारगर्भित है और कविता का सार प्रस्तुत कर रहा है ,स्थितियां कैसे बदली हैं यह लिख कर आपने बाकी भी स्पष्ट कर दिया है। धन्यवाद।
मैंने इस छोटी सी कविता में सुदूर अतीत से वर्तमान तक निवृति मूलक विचारधारा एवं दर्शन के सापेक्ष समस्त प्रगति का ( मात्र भौतिक प्रगति का नहीं ) तुलनात्मक स्वरूप प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। रही बात भौतिकता से दूर रहने की प्रवृति की तो वह सम्पन्न वर्ग द्वारा विपन्न वर्ग को दी गयी शिक्षा मात्र थी , वह आज भी है , जब हम यह दावा करते हैं कि बत्तीस रूपये प्रतिदिन में एक व्यक्ति सुखद जीवन व्यतीत कर लेगा । कम से कम प्राचीन भारतीय लौकिक साहित्य में तो संपन्न लोगों द्वारा बहुत ही ऐश्वर्य पूर्ण जीवन व्यतीत करने के उल्लेख मिलते हैं। अपरिग्रह का दर्शन अलग है और उपदेशों तक सीमित रह गया। पिछले लगभग तीन दशकों में आई. टी. व्यवसाय ने यहां जो आर्थिक सपन्नता प्रदान की है उसने बहुत सी धारणाओं को बदल कर रख दिया है। भारत सुदूर अतीत से ही विश्व व्यापारियों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है , आज भी है , आज कुछ अधिक बड़ा उपभोक्ता बाज़ार है।.…… और भी बहुत कुछ है , इन सबके सापेक्ष प्रगति विचारणीय है।
आपसे वार्ता करना अच्छा लगता है।
आभार।
सादर।
Comment by Hari Prakash Dubey on March 19, 2015 at 11:48pm

लोग उल्लुओं को
पास आने नहीं देते
हम हर गुलिस्तां
उल्लुओं से सजाते रहे.....ये गज़ब की बात कह दी ,आदरणीय डॉक्टर विजय शंकर सर , सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई आपको ! सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 19, 2015 at 10:52pm
आदरणीय डॉo गोपाल नारायण जी , आपको रचना अच्छी लगी , अच्छा लगा। आपकी शुभ क आम्नाओं हेतु आभार एवं धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on March 19, 2015 at 10:49pm
प्रिय मिथिलेश जी , आपको रचना अच्छी लगी , अच्छा लगा , रचना को सार्थकता मिली। आपकी शुभ क आम्नाओं , बधाई हेतु आभार एवं धन्यवाद , सादर।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 19, 2015 at 10:01pm

आदरणीय विजय शंकरजी, आपकी प्रस्तुत कविता दो प्रच्छन्न विचारों के अनुरूप जीये जाने वाले जीवन तथा तदनुरूप अभिप्राप्यों के प्रति बनी ललक का सुन्दर प्रस्तुतीकरण है. आपने बिम्बों का यथोचित निर्वाह भी किया है.

आपको हार्दिक बधाई तथा शुभकामनाएँ.

किन्तु इस सम्बन्ध में मैं कुछ बातें अवश्य साझा करना चाहूँगा.

वस्तुतः भौतिक सुखों की आवश्यकता अपरिहार्य है. किन्तु इनके लिए अतुकान्त आग्रहों और प्राप्तियों के लिए अत्युच्च आवृतियों अथवा अतिरेक के लिए अपेक्षाओं को अपने अनवरत समाज में वैसे भी कभी महत्त्व नहीं दिया गया है. किन्तु यह भी उतना ही सत्य है, इन अपेक्षाओं का शमन बलात करने के स्थान पर अपरिग्रह के पथ पर चलते हुए निस्तारित करने का सुझाव रहा है. अतः भौतिक प्रगति के आयाम ठीक वही नहीं रहे हैं जिन मानकों पर पश्चिम के समाज ने इन्हें समझा एवं अपनाया है. यही कारण है कि भारत का एक बड़ा वर्ग तृष्णा और लालसाओं के वशीभूत जीने को त्याज्य समझता रहा है. चूँकि आज या अब हमारा समाज ’आधा तीतर आधा बटेर’ जैसे जीवन को एक्सपोज्ड है, तो ऐसी भावनाएँ अक्सर प्रभावी हो जाती हैं. कि, भारतीय सोच या मंतव्य अभिलाषाओं में जीने को बाध्य करते हैं, या, इस भूभाग के लोग भौतिकता के उस स्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाते जिसे पश्चिम के लोग जीते हैं.
सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 19, 2015 at 9:22pm

लोग उल्लुओं को
पास आने नहीं देते
हम हर गुलिस्तां
उल्लुओं से सजाते रहे ||-------आ० विजय सर !  बहुत गहरी बात की आपने .  सादर .

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय सौरभ सर, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। आयोजन में सहभागिता को प्राथमिकता देते…"
16 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय सुशील सरना जी इस भावपूर्ण प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। प्रदत्त विषय को सार्थक करती बहुत…"
17 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, प्रदत्त विषय अनुरूप इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
17 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। गीत के स्थायी…"
17 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय सुशील सरनाजी, आपकी भाव-विह्वल करती प्रस्तुति ने नम कर दिया. यह सच है, संततियों की अस्मिता…"
17 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आधुनिक जीवन के परिप्रेक्ष्य में माता के दायित्व और उसके ममत्व का बखान प्रस्तुत रचना में ऊभर करा…"
17 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय मिथिलेश भाई, पटल के आयोजनों में आपकी शारद सहभागिता सदा ही प्रभावी हुआ करती…"
17 hours ago
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"माँ   .... बताओ नतुम कहाँ होमाँ दीवारों मेंस्याह रातों मेंअकेली बातों मेंआंसूओं…"
20 hours ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"माँ की नहीं धरा कोई तुलना है  माँ तो माँ है, देवी होती है ! माँ जननी है सब कुछ देती…"
yesterday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय विमलेश वामनकर साहब,  आपके गीत का मुखड़ा या कहूँ, स्थायी मुझे स्पष्ट नहीं हो सका,…"
yesterday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय, दयावान मेठानी , गीत,  आपकी रचना नहीं हो पाई, किन्तु माँ के प्रति आपके सुन्दर भाव जरूर…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-178
"आदरणीय दयाराम मैठानी जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। सादर।"
yesterday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service