"ओपन बुक्स ऑनलाइन" के मंच से हमारे अजीज़ दोस्त राणा प्रताप सिंह द्वारा आयोजित तीसरे तरही मुशायरे में इस बार का मिसरा 'बशीर बद्र' साहब की ग़ज़ल से लिया गया था :
"ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई"
मुशायरे का आगाज़ मोहतरमा मुमताज़ नाज़ा साहिबा कि खुबसूरत गज़ल के साथ हुआ ! यूं तो मुमताज़ नाज़ा साहिबा की गज़ल का हर शेअर ही काबिल-ए-दाद और काबिल-ए-दीद था, लेकिन इन आशार ने सब का दिल जीत लिया :
//कारवां तो गुबारों में गुम हो गया
एक निगह रास्ते पर जमी रह गई
मिट गई वक़्त के साथ हर दास्ताँ
एक तस्वीर दिल पर बनी रह गई//
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//गुम गयी गिल्ली, डंडा भी अब दूर है.
हाय! बच्चों की संगी रमी रह गयी..//
मोहतरमा मुमताज़ नाज़ा के बाद आचार्य संजीव वर्मा सलिल
साहिब की एक बाकमाल गज़ल (बकौल उनके मुक्तिका) ने पाठकों का मन मोह लिया ! गिल्ली डंडा सहित बहुत से विशुद्ध भारतीय बिम्बों से सराबोर शेअर सभी का ध्यानाकर्षण करने में सक्षम रहे ! "रमी" और "ममी" जैसे शब्द गजल में आज टल देखने को नहीं मिले, लेकिन आचार्य सलिल जी ने जिस सुन्दरता से इन शब्दों को शेअरों में पिरोया - वाकई कमाल है! मुशायरे का रंग आचार्य जी पर इस क़दर चढ़ा कि वो एक और बा-कमाल ग़ज़ल (बकौल उनके मुक्तिका) लेकर नमूदार हुए ! पाठकों को एक दफा फिर अपनी मिट्टी कि खुशबू आचार्य जी के आशार से महसूस हुई ! उसका एक नमूना पेश है:
//खेत, खलिहान, पनघट न चौपाल है.
गाँव में शेष अब, मातमी रह गई.. //
जहाँ आपकी ग़ज़ल को देसी शब्दों ने चार चाँद लगाए वहीँ अंग्रेजी भाषा के शब्दों को किस प्रकार प्रवाह और वजन में बंधा जा सकता है, उसकी मिसाल निम्नलिखित से मिल जाएगी :
//रंग पश्चिम का पूरब पे ऐसा चढ़ा.
असलियत छिप गई है, डमी रह गई..//
"डमी" शब्द को जिस सरलता और सुन्दरता से प्रयोग किया गया है, वो निहायत ही प्रशंसनीय है !
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मुशायरे के तीसरे शुरका थे जनाब नवीन चतुर्वेदी, जो एक बेहद दिलकश ग़ज़ल के साथ महफ़िल में हाज़िर हुए ! आपने नाम ही कि तरह ही वो जदीद (नवीन) ख्यालों के लिए जाने जाते हैं ! सादगी, खुशबयानी और प्रयोग - इनकी शायरी का अटूट हिस्सा लगा है हमेशा ही मुझे ! आपकी ग़ज़ल से मेरे तीन सब से मनपसंदीदा शेअर :
//वो भले घर से थी, 'चीज़' ना बन सकी
इसलिए, नौकरी ढूँढती रह गयी
जब 'तजुर्बे' औ 'डिग्री' का दंगल हुआ|
कामयाबी, बगल झाँकती रह गयी
बन्दरी, जो मदारी के 'हत्थे' चढी|
ता-उमर, कूदती-नाचती रह गयी //
इन शेअरों को पढ़कर या सुनकर सिवाए "वाह वाह" के कुछ कहा और जा सकता है क्या ? आप चंद और पुरनूर शेअरों के साथ कई दफा बीच बीच में नमूदार होकर भी महफ़िल को रौशनी बख्शते रहे ! आपके कुछ और बेहतरीन आशार :
//गाँव की 'आरजू' - शहरी 'महबूब' का|
डाकिये से पता पूछती रह गयी||
नौजवानो उठो, कुछ बनो, कुछ गढो|
क्या लुटाने को बस 'जान' ही रह गयी|| //
ये ही नहीं जामा मस्जिद के पास हुई फायरिंग पर भी उनकी कलम ने इसी ज़मीन पर एक अच्छी खासी ग़ज़ल कह डाली, ग़ज़ल में मेरे सब से पसंदीदा आशार:
//फ़र्ज़ अपना पुलिस फिर करेगी अदा
पूछेगी कार काहे खड़ी रह गई||
तंत्र अपना ग़ज़ब का है मुस्तैद, तो|
फिर कहाँ कैसी पेचीदगी रह गई //
मुशायरा अब तक रंग पकड चुका था, बकौल जनाब नवीन चतुर्वेदी :
//हर गजलगो यही सोचता फिर रहा|
बात क्या अनछुई, अनकही रह गयी||//
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इसके बाद मुशायरे को नवाजने की ज्रहमत-ए-सुखन कुबूल फरमाई जनाब पुरषोत्तम आज़र साहब ने ! फन्ने गज़ल और इल्म-ए-अरूज़ में आपकी पकड़ अनूठी है, जिसका सुबूत उनकी गजल में देखने को मिला ! हालाकि उनको किसी भी एक शेअर का इन्तखाब एक इन्तेहाई मुश्किल काम है, मगर मेरी नाचीज़ राय में मन्दर्जा ज़ैल दो शेअर बकाम हैं :
//इक इशारे से उसके वो हलचल मची
मेरे दिल की यूं धडकन थमी रह गई
//क्यूं खफ़ा किस लिए है बाता दे मुझे
क्या लियाकत में मेरे कमी रह गई !//
जिस तहम्मुल का इज़हार आपने आपने आशार में किया तो आपके एक एक शेअर को भरपूर दाद हासिल हुई
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हमारे नवोदित शायर जनाब पल्लव पंचोली भी अपनी एक छोटी सी गजल के साथ महफ़िल में हाज़िर हुए ! इनका ये शेअर इनके अन्दर कि प्रतिभा का सूचक है:
//लगी आग तो बस्ती जली सारी
दिलों मे बर्फ थी, जमी रह गयी !"
मगर जैसा कि आचार्य संजीव वर्मा "सलिल" जी ने उनके बारे में कहा :
//बात पल्लव ने की है समझदारी की.
बस बहर में कहीं कुछ कमी रह गयी..//
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दावत-ए-सुखन कबूल करने वाले अगले शायर थे पंजाबी साहित्य जगत से जुड़े जनाब तरलोक जज साहब ! जो गालिबन हिंदी (हिन्दुस्तानी) गजल में पहली दफा हाथ आज़मा रहे थे ! मगर उनका तजुर्बा और प्रौढ़ साहित्यक उनकी ग़ज़ल से साफ़ साफ़ झलकता हुआ महसूस हुआ ! और वो अपनी ग़ज़ल से महफ़िल को मुअत्तर करने में कामयाब रहे ! और आपकी ग़ज़ल को खूब सराहा गया, खास कर इन आशार को :
//देश की कल्पना खोई आकाश में
एक उम्मींद सी देखती रह गई
जब से सहरा में गुम हो गए हैं सजन
रेत पैरों के नीचे दबी रह गई ! //
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तरलोक जज साहब के बाद अगले शुरका थे जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह साहब, जो एक बहुत ही संतुलित और गहरी सोच वाली गजल लेकर हाज़िर हुए ! मोहतरम हाजरीन से आपको भी भरपूर दाद हासिल हुई ! इनकी गजल में मेरे मनपसंदीदा शेअर:
//लाल जोड़ा पहन साँझ बिछड़ी जहाँ,
साँस दिन की वहीं पर थमी रह गई।
//रात ने ग़म-ए-दिल तो छुपाया मगर
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई।//
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//ऐसा मुमकिन नहीं भूल पाओ हमें
हम जो रुखसत हुए आँखें नम रह गयी//
ये शेअर है अगले शायर जनाब दीपक शर्मा "कुल्लूवी" साहब का जो कि मुशायरे क़ी रौनक बढ़ने वाले आगे शायर थे ! आपकी ग़ज़ल ने भी सब को प्रभावित किया !
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निम्नलिखित शेअर मोहतरमा अर्चना सिन्हा जी का है, जो मुशायरे की अगली शायरा थीं :
//थाम कर चाँद को बैठी रही थी रात भी
सुबह को देखा तो बस चांदनी रह गयी //
आपके काव्य प्रयास को भी महफ़िल में सराहा गया, और मोहतरम साथियों के द्वारा इस्लाह भी दी गई !
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जनाब दीपक कुमार जो कि अर्चना जी के बाद अपनी एक गजल के साथ निशिश्त में तशरीफ़ लाए उनकी गज़ल के दो शेअर पेश-ए-खिदमत हैं :
//मन-मुताबिक खिलौने कहाँ मिल सके
सबके हिस्से यहाँ बेबसी रह गई
दाँव अपने कभी काम आये नहीं
होशियारी धरी-की-धरी रह गई //
मुकम्मिल ग़ज़ल के बाद आप दोबारा चंद दिलकश शेअर लेकर हाज़िर हुए जिनको सभी ने दिल से सराहा ! जाती तौर पर मेरा सब से पसंदीदा शेअर::
//उम्र भर नींद आई नहीं ढंग से
आँख लेकिन लगी तो लगी रह गई !//
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जनाब सुबोध कुमार "शरद" साहब ने भी दावत-ए-सुखन कबूल फरमा कर महफ़िल में अपनी एक ग़जल कही ! गजल का मकता काफी अच्छा रहा :
//ऐसा लगे देख के आईना ‘‘शरद‘"
जिस्म कहीं और रूह कहीं रह गई !"
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अजय कन्याल भी आपने तीन शेअरों के साथ मुशायरे में शरीक हुए ! वरिष्ठ साथियों द्वारा उन्हें कुछ बहुमूल्य सुझाव भी दिए गए उनके आशार के मुताल्लिक !
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//घर से बाहर निकलने वो जब से लगी
ढूँढती तब से वो आदमी रह गई //
राणा प्रताप सिंह जिन्होंने इस मुशायरे को मुन्क्किद किया था, अगले शायर थे जो अपने पुरनूर आशार के साथ (थोड़ी ताखीर से ही सही) महफ़िल-ए-गजल में नमूदार हुए ! हालाकि हर एक शेअर "सवा सवा लाख" का रहा उनका, मगर निम्नलिखित शेअर सीने में हाथ डाल कर दिल निकल कर ले जाने वाले और मुशायरा लूटने वाले साबित हुए :
//मौत से पहले ही उनको मौत आ गई
जिनके हिस्से में बस मुफलिसी रह गई
कोई रहबर न ठोकर लगाता मुझे
पहले सी अब कहाँ दिल्लगी रह गई
अब कन्हैया का कुछ भी पता न चले
पार जमुना के राधा खड़ी रह गई
जब से हम सब तरक्की की जानिब हुए
गंगा, मैया से बनकर नदी रह गई
लाख धो डाला चोले को तुमने मगर
पान की पीक जो थी लगी रह गई ! //
गंगा, यमुना, कन्हेया, राधा और पान जैसे भारतीय शब्दों के प्रयोग ने इस ग़ज़ल को एक मुनफ़रिद पहचान बख्शी है, जिसके लिए राणा जी शायर मुबारकबाद के हकदार हैं ! मुकम्मिल गजल के बाद अपने तीन और शेअरों से महफ़िल को नवाज़ा, उन में दो शेअर तो ऐसे मानो २ मिसरों में पूरा अफसाना बयाँ कर दिया हो, आप सब कि पेश-ए-नजर हैं:
//बाप लड़की का पैसे जुटा न सका
सुर्ख जोड़े में दुल्हन सजी रह गई|
लाश कब से पड़ी कोई ना पूछता
सिर्फ खबरों में ही सनसनी रह गई //
मानवीय संवेदनायों कि नब्ज़ टटोलते इन आशार को भी भरपूर दाद हासिल हुई !
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जनाब नवीन चतुर्वेदी जी शायद मुशायरा पूरी तरह से लूटने के मूड में थे, तीन और बाकमाल शेयर लेकर आए, दो का ज़िक्र यहाँ करना लाजमी है :
//गाँव की 'आरजू' - शहरी 'महबूब' का|
डाकिये से पता पूछती रह गयी||
नौजवानो उठो, कुछ बनो, कुछ गढो|
क्या लुटाने को बस 'जान' ही रह गयी //
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.//काजू अखरोट बादाम तस्वीर में ,
थाल में सब्जी एक मौसमी रह गयी //
ये शे'र है जनाब अरुण कुमार पाण्डेय "अभिनव" का जो महफ़िल के अगले शायर थे ! बहुत ही पुरअसर आशार साबित हुए इनकी गजल के !
//लौट कर बेटी आई यकायक जो घर ,
सबकी धड़कन थमी की थमी रह गयी // एक ही शेअर में पूरी कहानी के दी हो जैसे !
//सब मशालें शहर को मुखातिब हुईं ,
गाँव में अब कहाँ रौशनी रह गयी // इंडिया और भारत के बीच की खाई पर बहुत ही सटीक व्यंग !
//जार की मछलियाँ हैं पशोपेश में ,
उनके पीछे नदी में गमी रह गयी. // ये शायर कि बुलंद परवाज़-ए-तखय्युल का सुबूत है !
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जनाब राज "लाली" बटालवी भी अपने एक गजल के साथ शरीक हुए, आपकी कोशिश और विचारों को भी सराहा गया, और बेशकीमती सुझाव भी कई साथियों से उनको मिले !
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ज़हमत-ए-सुखन मंज़ूर फरमाने वाले अगले शुरका थे (indeed a surprise package) श्री सौरभ पाण्डेय जी ! कविता के अन्य स्वरूपों में उनकी महारत से हम सब वाकिफ थे मगर उनकी ग़जल में पकड़ ने भी सब को हैरत में डाल दिया ! आपकी गजल के चंद आशार पेश-ए-खिदमत है :
//झक्क उजालों में गुम लक्ष्मी रह गई ।
मन के अंदर की कालिख जमी रह गई॥
वास्तु के ताब पर घर बनाया गया ।
दर गया, दिल गए, शाखेशमी रह गई ॥
दौरेहालात हैं या तक़ाज़ा कोई -
था धावक कभी, चहल-कदमी रह गई॥//
लक्ष्मी, वास्तु और धावक जैसे शब्द मैंने ग़ज़ल में कभी भी नहीं देखे ! आपकी गजल को भरपूर सराहा गया, ये बताने कि ज़रुरत नहीं ! आपकी गजल को आचार्य "सलिल" जी ने जो खिराज-ए-अकीदत पेश किया वो सब कुछ ब्यान करता है :
//शारदा की कृपा जब भी जिस पर हुई.
उसकी हर पंक्ति में इक ग़ज़ल रह गई॥
पुष्प सौरभ लुटाये न तो क्या करे?
तितलियों की नसल ही असल रह गई॥ //
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हालाकि जनाब नवीन चतुर्वेदी और राणा प्रताप मुशायरा लूट ही चुके थे, मगर एक हिमाकत इस खादिम से भी हो गई ! एक खोटी चवन्नी जैसी ग़ज़ल लेकर अशर्फियों की पोटलियों के दरम्यान जा धमका ! लेकिन जब सब साथियों और अग्रजों ने मेरे कंधे पर हाथ रखा तो जान में जान आई !
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डॉ बृजेश त्रिपाठी जी, जो कि पहले तरही मिसरे को पकड़ नहीं पाए थे, मेरे बाद अपने शेयरों के साथ हम सब को कृतार्थ करने पहुंचे ! बड़े ही सम सामायिक विषय पर उनके चारों शेअर दिल को छू गए !
//इस समय तो अवध है ग्रहण काल में
काल की गति भी देखो थमी रह गयी
कुछ समय तो अब इनकी भी चल जाएगी
आसुरी शायद मन की छिपी रह गयी
कोई खतरा अमन को आये न अब कभी
सारी कोशिश प्रशासन की यही रह गयी
सत्य का वध न कोई,पर कर पायेगा
हशरतें रावणों की धरी रह गयीं .. //
काल, अवध, गति, ग्रहण, असुरी और प्रशासन जैसे शब्दों से सजे इन शेअरों को पढ़कर क्या कोई भाव विभोर हुए बिना रह सकता है ?
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जनाब अरविन्द चौधरी कि ग़ज़ल ने भी खूब समय बंधा जो कि डॉ बृजेश त्रिपाठी के बाद मुशायरे में तशरीफ़ लाए !
//बाँटने को ख़ुशी, हाथ तैयार थे,
बीच दीवार कोई खड़ी रह गई
आँसुओं की झडी, तोहफा प्यार का
पास दरिया मगर तिश्नगी रह गई //
आपने ने जिस तहम्मुल मिजाजी के साथ सुझावों को स्वीकार किया वाह भी काबिल-ए-तारीफ है !
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बकौल जनाब नवीन चतुर्वेदी जी, अपने बगावती अंदाज़ के साथ ओपन बुक्स ऑनलाइन के सर्वे-सर्वा जनाब गणेश जी "बागी" भी अपनी गजल के साथ निस्बतन थोड़ी देर से मुशायरे में अपना कलाम कहने के लिए पधारे ! इस नवोदित शायर के विचार और इनकी सोच भी धरातल से जुड़ी हुई है जोकि बायस-ए-मसर्रत है ! इनके शेअर इस बात क़ी पूरी तर्जुमानी भी करते हैं, बानगी हाज़िर है - मुलाहिजा फरमाएं :
//घर नया ले लिया शहर में बेटे ने,
बाप माँ को वही झोपड़ी रह गई,
जो सभी को खिला बैठी खाने बहू,
उसकी हिस्से की रोटी जली रह गई,
बेटियों के लिये तरसता इक पिता,
लालसा कन्यादान की दबी रह गई, //
मानवीय संवेदना और सामजिक सरोकारों के हमराह चलते इनके आशार क़ी जहाँ एक तरफ प्रशंसा हुई वहीँ दूसरी तरफ उरूज़ के नुक्ता-ए-नजर से इन्हें कुछ बेशकीमती सुझाव भी दिए गए ! बकौल जनाब पुरषोत्तम आज़र साहिब:
//भाव अच्छे लगे दिल से दे दूं दुआ
बस जरा सी बहर में कमी रह गई//
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"मैं कैसे डूब सकता हूँ, वफ़ा के खुश्क दरिया में,
तेरे दरिया-ए-उल्फत में कोई गहराई भी तो हो ! "
यह शेयर है जनाब हिलाल अहमद "हिलाल" साहिब का !
इल्म-ए-उरूज़ और फन-ए-सुखन में हज़रत शौक़ वजीरगंजवी से बाकायदा तरबीयत हासिल करने वाले और इनके के सब से चहेते और लाडले शागिर्द जनाब हिलाल अहमद "हिलाल" भी दावते-कलाम मंज़ूर कर इस तरही मुशायरे की शोभा बढ़ाने पहुंचे! आपकी आमद ने इस मुशायरे को एक मुनफ़रिद पहचान दे दी ! आपकी ग़ज़ल के कुछ ख़ास आशार :
//अक्स क्या उड़ गया तेरा अलफ़ाज़ से
खाली बे रंग की शायरी रह गयी
अपने घर से चला जब मै परदेस को
दूर तक माँ मुझे देखती रह गयी
उसने इक बात भी मेरी चलने न दी
सारी तोहमत मेरे सर मढ़ी रह गयी //
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जनाब आशीष यादव भी अपनी एक छोटी सी ग़ज़ल के साथ इस मुशायरे में शरीक हुए, और तरही मिसरे के मुताबिक आपने आशार को बाँधने की कोशिश की, आपके दो शेअर ख्यालात के हिसाब से काफी अच्छे रहे :
//क्या क्या न मिला ज़िन्दगी से मुझे,
कहीं आँखों में एक नमी रह गयी|
वज्म-ए-जिंदगानी सजी तो मगर,
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गयी //
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आचार्य संजीव वर्मा "सलिल" जी अपनी दो और ग़ज़लों (बकौल उनके मुक्तिका) लेकर पुन: मंच क़ी शोभा बढ़ाने पधारे, पहले ही की शेअरों की तरह इस बार भी पुरनूर और पुरअसर आशार के साथ ! हर शेअर ख्याल और अदायगी में मुकम्मिल है मगर एक शेअर जिसने आँखें नाम कर दीं, हाज़िर है :
//माँ! अधूरी मेरी बन्दगी रह गई.
ज़िन्दगी में तुम्हारी कमी रह गई..//
दूसरी ग़ज़ल भी बहुत ही अनूठी और विलक्षण सुगंध लिए हुए थी:
//मुक्त से मुक्ति ही क्यों छिपी रह गई?
भक्त की भक्ति ही क्यों बिकी रह गई?
छोड़ तन ने दिया, मन ने धारण किया.
त्यक्त की चाह पर क्यों बसी रह गई?
चाहे लंका में थी, चाहे वन में रही.
याद मन में तेरी क्यों धँसी रह गई?
शेष कौरव नहीं, शेष यादव नहीं..
राधिका फाँस सी क्यों फँसी रह गई?
ज़िंदगी जान पाई न पूरा जिसे
मौत भी क्यों अजानी बनी रह गई?
खोज दाना रही मूस चौके में पर
खोज पाई न क्यों खोजती रह गई?
एक ढाँचा गिरा, एक साँचा गिरा.
बावरी फिर भी क्यों बावरी रह गई?
दुनिया चाहे जिसे सीखना आज भी.
हिंद में गैर क्यों हिन्दवी रह गई?
बंद मुट्ठी पिता, है हकीकत यही
शीश पर कुछ न क्यों छाँव ही रह गई?
जिंदगी में तुम्हारी कमी रह गई
माँ बिना व्यर्थ क्यों बन्दगी रह गई?
बह रहा है 'सलिल' बिन रुके, बिन थके.
बोल इंसान क्यों गन्दगी रह गई? //
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मुशायरे के आख़री शायर थे जनाब नवीन चतुर्वेदी, जो पहले तो लीक से हटकर इस बार तरही मुशायरे की संजीदगी को अपने मजाहिया कलाम से खुशगवार करने के लिए तशरीफ़ लाए और हजब-ए-मामूल फिर से छा गए ! ग़ज़ल इतनी खूबसूरत रही कि आपकी पूरी ग़ज़ल मैं यहाँ एक बार फिर से पेश कर रहा हूँ ताकि आप सब भी लुत्फ़-अन्दोज़ हो सकें !
//मोटू ब्याने को जिस दम चढ़ा घोड़ी पर|
वो बेचारी जमीँ सूंघती रह गयी|
देखा दुल्हन ने, गश खा के वो गिर पड़ी|
सासू माँ बालों को नोंचती रह गयी|
खाने बैठा वो जैसे ही पंडाल में|
केटरर की भी धड़कन थमी रह गयी|
मोटू के साथ आए थे बाराती जो|
उनकी किस्मत में बस दाल ही रह गयी|
मोटू ख़ाता गया और ख़ाता गया|
उस की अम्मा उसे टोकती रह गयी|
खूबसूरत दुल्हन - बेटी मजदूर की|
आँसुओं को फकत पोंछती रह गयी|//
फिर आखिर में जनाब नवीन जी ५ शेअरों का एक और गुलदस्ता लेकर महफ़िल में तशरीफ़ लाये, उन में से २ सब से बेहतरीन शेअर आप सब के सामने प्रस्तुत है :
//बाद गाँधीजी के, यार - इस मुल्क में|
पुस्तकों में ही 'गाँधीगिरी' रह गयी|
मेरे ''दिल की तसल्ली' कहाँ गुम हो तुम|
जिंदगी में तुम्हारी कमी रह गयी ! //
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मुशायरा हर लिहाज़ से कामयाब रहा, बहुत से नए चेहरे इस बार हम से जुड़े ! कई नवोदित शायरों की शिरकत ने भी मुशायरे को एक रंगत बक्शी, बड़ा अच्छा लगा ये देखकर कि प्राय: सभी लोगों ने सुझावों को खिले माथे से स्वीकार किया !
सर्वश्री आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी, सौरभ पाण्डेय और डॉ बृजेश त्रिपाठी जैसे सीनीअर्ज़ ने भी बढ़ चढ़ कर इसमें हिस्सा लिया, जो ज्यादा ख़ुशी कि बात है ! हिंदी साहित्य से जुड़ी इन विभूतियों को गजल हर कलम अजमाई करते देखना वाकई में बड़ा अद्भुत रहा !
उस से भी ज्यादा प्रसन्नता की बात यह है कि लगभग सभी शायरों ने धरातल से जुडी बात की ! जहाँ राम, सीता, राधा, हनुमान, गंगा, यमुना, लक्ष्मी, चूल्हा, रसोई, पालथी, खेत, खलिहान, पनघट, चौपाल, काल, अवध, गति, ग्रहण, असुरी और प्रशासन, कन्यादान, शारदा, गिल्ली डंडा इत्यादि हिंदी के शब्दों को बाकमाल ढंग से पिरोया गया है, तो वहीँ दूसरी ओर टेबल, डिग्री, रमी, ममी, फायरिंग और केटरर जैसे कई अंग्रेजी के शब्द भी कुछ इस तरह से बांधे गए कि अपनेपन का अहसास देते नज़र आते हैं !
हर प्रयोजन में कमी बेशी का रह जाना एक आम सी बात है ! कुछ बहुत से अच्छे आशार जहाँ उचित ध्यानाकर्षण से महरूम रहे वहीँ बहुत सी जगह बहर-वजन, बर्तनी, व्याकरण और तथ्यात्मक त्रुटियाँ Unnoticed रह गईं ! मेरी तुच्छ राय में ऐसी महफ़िलों में अगर किसी भी प्रकार से पूर्वाग्रह से मुक्त होकर सम्मिलित हुआ जाए तो ज्यादा बेहतर होगा !
यह बात सही है कि कई बार जोश या ख़ुशी में महफ़िल के आदाब को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है, मगर बेहतर हो कि उनको याद रखा जाए और उनका पालन भी किया जाए ! दाद देते वक़्त :
"क्या ग़ज़ल निकाली है", "क्या शेअर निकाला है", "ग़ज़ल या शेअर मस्त हें !" इत्यादि जुमलों का प्रयोग ना करके साहित्यक भाषा का उपयोग किया जाए तो बहुत बेहतर होगा !
बहरहाल, मैं इस तरही मुशायरे को कामयाबी आयोजित करने और अंजाम तक पहुँचाने के लिए जनाब राणा प्रताप सिंह को दिल से बधाई देता हूँ ! अपने 40 शेयरों से महफ़िल को जगमगाने वाले और इस मुशायरे के हीरो जनाब नवीन चतुर्वेदी सहित उन सब शायरों का शुक्रिया अदा करता हूँ जिन्होंने इस महफ़िल में चार चाँद लगाए ! मैं इस मौके पर विशेष धन्यवाद करना चाहूँगा मैडम आशा पाण्डे ओझा जी, मैडम डॉ सरोज गुप्ता जी और मैडम अपर्णा मनोज जी, सर्वश्री पंकज त्रिवेदी जी, विवेक मिश्र "ताहिर" जी, मुकेश सहारिया जी और भाई जोगेंद्र सिंह जी का का जिन्होंने तमाम शायरों का मौके मौके पर अपनी बहुमूल्य टिप्पणियों से उत्साहवर्धन किया !
सादर !
योगराज प्रभाकर
प्रधान सम्पादक
(ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम)
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