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ग़ज़ल : ज़रा  सोचिए दिल लगाने से पहले : SALIM RAZA REWA

122 122 122 122
....

महब्बत  की राहों  में जाने से पहले.

ज़रा  सोचिए  दिल  लगाने से पहले.
.
बहारों का इक शामियाना  बना  दो.
ख़िज़ाओं को गुलशन में आने से पहले.
.
गिरेबान में  झांक  कर अपने देखो.
किसी पर भी उंगली उठाने से पहले.
.
ग़रीबों की आहों से बचना है मुश्क़िल.
ये तुम सोच लो दिल दुखाने से पहले.
.
कभी चल के शोलों पे देखो रज़ा तुम.
महब्बत  की  बस्ती  जलाने से पहले.
..

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by SALIM RAZA REWA on October 17, 2017 at 10:30pm
जनाब तस्दीक साहब.
मेरी इस ग़ज़ल को भी महब्बत से नवाज़े..
Comment by SALIM RAZA REWA on October 16, 2017 at 8:44pm
आ. लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'जी,
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया शुक्रिया,
Comment by SALIM RAZA REWA on October 16, 2017 at 8:43pm
आ. बृजेश जी,
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया.
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 16, 2017 at 7:39pm
आ. भाई सलीम जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 15, 2017 at 9:57pm
खूबसूरत ग़ज़ल हुई आदरणीय...सादर
Comment by SALIM RAZA REWA on October 15, 2017 at 5:25pm
जनाब समर साहब
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया,
ताब्दीली कर दी जाएगी...
Comment by Samar kabeer on October 15, 2017 at 5:18pm
जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले के सानी मिसरे में 'मोहब्बत' को "महब्बत" कर लें ।

दूसरे शैर के सानी मिसरे में 'ख़िज़ाओं को' की जगह "ख़ज़ाओं के" कर लें ।
Comment by SALIM RAZA REWA on October 15, 2017 at 3:48pm
आ. वन्दना जी,
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया.
Comment by vandana on October 15, 2017 at 3:23pm

बहुत सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय सलीम साहब 

Comment by SALIM RAZA REWA on October 15, 2017 at 10:12am

आदरणीय अजय तिवारी  जी ,
आपकी मुहब्बत सलामत रहे बहुत बहुत शुक्रिया ,

कृपया ध्यान दे...

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