हम तुम रेल की बर्थ पर बैठे ठकड़ ठकड़ कितनी देर तक वो आवाजें सुनते रहे ...शायद तुम्हारे भीतर भी एक जीवन चल रहा था और मेरे भीतर भी पुरानी यादों का चलचित्र .... शायद उन यादों की कडुवाहट उनकी मिठास को सुनने वाला समझने वाला कोई न था .... कुछ जंगल हमारे साथ चलते थे और कुछ पेड़ पीछे छूटते जाते थे ... रात का चाँद भी रौशनी कम और परछाइयों को ही पैदा किये जा रहा था .. कम्पार्टमेंट की खिडकी से आती परछाइयाँ जो साथ थी और छूटती जा रही, चीजों के साथ बर्थ पर सरकती बनती बिगड़ती अनेकों परछाइयां ... पर वे थी कि मिट मिट कर फिर बन रही थी ... और वही कि हमारी यादों की परछाइयाँ हमारा पीछा किये जा रही थी वनस्पत इसके ट्रेन की रफ़्तार तेज हुए जा रही थी ... इस ठकड़ ठकड़ के शोर के बीच भी कितनी अजीब खामोशी थी ... शायद तुम्हारी नजर मेरी नजर से टकरा गयी थी ... शायद तुम्हारे मेरे बीच पसर आया था वह २० साल का फासला ... कितना कुछ बदल गया था ... तुम भी तो बदल गए थे ..पर वही आँखें थी ... चेहरे पर खिंच आयी थी कुछ रेखाए जैसे वलय पेड़ के ... खामोशियाँ टूटना चाहती थीं ... और अँधेरे मे नजर यकायक टकरा जाती तो एक चमक उठती पर उतनी ही जल्दी धुंधली पड़ जाती .. शायद शब्द गले में ही फंसे जा रहे थे.. हिम्मत नहीं थी कुछ कह जाने की ... शायद तुम ही कहोगे कुछ दोनों यही सोचते और एक मौन फ़ैल जाता उनके बीच ... याद आया वो सुरमई अँधेरा और वो नीली झील .. जिसके किनारे कितने ही अधूरे वादे गूंजते रहे अधूरी हकीकत की तरह .. वो झील का चांदी सा पानी जिसमें दो चेहरे साथ साथ हँसते थे ... उस रोज सब कुछ धूमिल हो गया जब झील का पानी आँखों मे ठहर गया और आँख से गिरते आंसूंओं से हर परछाई तार तार टूट गयी .. मुझसे किये वादे तुम्हारे फीके पड़ गए, जब पिता ने वादा किया अपने दोस्त के बेटे से .. और बिन पूछे सब मिठाई पिठाईं हो गयी, ऐसे में तुमने भी कब थामीं थी बाहें . एक त्यागी सिद्ध पुरुष की तरह कह दिया इसमें तुम्हारी भलाई है .. मैं आवाज लगाती रही और तुम मुंह मोड कर चले गए कभी न लौट आने के लिए ... मेरे आंसुओं से जो तरंगे उठी उस झील में, सुना कि किसी को अपना चेहरा फिर झील मे साफ़ नजर नहीं आया .. मेरी इच्छा क्या कभी किसी ने देखी, मेरे लिए क्या कभी किसी ने सोचा .. मैं सिर्फ वस्तु थी, बोझा थी, आयात निर्यात का अनचाहा सामान, पीहर ससुराल के बीच, बेच दी गयी कम से कम दामों में, किसी तरह से हुई मेरी खरीद फरोख्त और तुमने सब कुछ जानते हुए भी तय वादों को तोड़, मेरा हाथ छोड़ दिया, मेरी भलाई की दुहाई दे कर, शायद यह तुम्हारे आक्रोश का एक रूप था, कि कैसे मैंने उस रिश्ते के लिए हाँ कर दी, लेकिन बेगुनाह मैं पिस गयी, किसी ने मेरी पसंद न पसंद पूछी ही नहीं थी और रिश्ता तय कर दिया था ........ अब इन बातों को कह कर भी क्या हासिल होगा .. न वह गुजरा वक्त आएगा, न आगे कुछ सुधरेगा ... शायद तुमने मुझे माफ कर दिया हो उस गुनाह के लिए जो मैंने नहीं किया ही नहीं था, इतने सालों मे मैंने तो तुम्हें माफ कर दिया है, तुम्हारी बेरुखी को भी .. हां! बताना चाहती हूँ तुम्हें कि क्या तुमने वह झील देखी है? इतने बरसों बाद तुम उस शहर की ओर जाते दिख रहे हो, मैं तो ससुराल से कई बार वहाँ जा चुकी हूँ, या भेजी जा चुकी हूँ किसी न किसी मांग के साथ क्यूंकि ससुराल में घर को घर बनाए रखने के लिए अब मुझे पीहर हर दूसरे तीसरे महीने कुछ न कुछ उगहाना पड़ता है, पिता ने भी तो पहले कम से कम दाम मे मेरी बोली लगाई थी उसकी भरपाई ससुराल वाले ऐसे करवा रहे हैं, मैं ससुराल वालों के पराये घर की लड़की और पीहर वालों के पराई अमानत, पराई बहू बन कर ही रही ... लेकिन हां बताना चाहती हूँ तुम्हें कि अब उस झील में पानी नहीं रह गया है वह मौसम की कड़क मार को झेल नहीं पाई| कुछ समय वह दलदल बनी रही कि जैसे अपनी हर इच्छित चीज को ऐसे डुबो दे अपने में कि वह उसे छोड़ कर बाहर न आ पाए, लेकिन ऐसा कुछ न हुआ और फिर वह पूरी तरह से सूख चुकी है ..... ....ओह! एक झटके के साथ रेल रुक गयी.. यह कोई छोटा मोटा स्टेशन है .. तुमने एक नजर मेरी ओर देखा लगा कि तुम सदियों से लंबे उन २० साल की बात कहना चाहते हो .. कहना चाहते हो कि तुम अभी भी मुझे उतना ही प्यार करते हो, मैं सुनने के लिए आतुर- तुम कहाँ थे इतने साल, कैसे थे और हाँ, हम इस बार एक ही शहर जा रहे हैं शायद, जहाँ मेरा पीहर और तुम्हारा पुस्तैनी मकान है, अब की बार उस झील के किनारे कुछ ताजा हवाएं चलेंगी कुछ बादल बरसेंगे उसका तट अपने पुराने साथियों को देख मुस्कुराएगा ओर दो चेहरे फिर खिलखिलाएंगे झिलमिलाएंगे पानी पर ...... पर यह क्या? तुम उठे और सहज क़दमों से कम्पार्टमेंट से बाहर निकल लिए, ओ हां! वो तुम्हीं तो हो जो स्टेशन से बाहर निकल दूर होते जा रहे हो .. तुम्हें आवाज लगाने के लिए मैं बाहर की ओर दौडी तो स्टेशन से गाडी चल पड़ी ... कैसी विडम्बना है, कैसी मजबूरी की मुझे वापस चुपचाप अपने बर्थ पर लौटना पड़ा|... लेकिन हाँ वहाँ एक गुलाबी कागज चमक रहा था जहाँ तुम बैठे थे ...मैंने कागज उठाया तो वह ट्रेंन का टिकट था .. आज की तारीख का .. और गंतव्य मेरा पीहर उसका घर .... तो यह क्या - तुम आधे ही सफर मे उतर गए ... क्या तुमने अभी भी मुझे माफ नहीं किया? मेरे साथ इस यात्रा को पूरा करना तुमने मुनासिब नहीं समझा| मेरी आँखें फिर आसुवों से धुंधली हो चली| तुम आज भी मुझे यूँ छोड़ कर रेल से उतर गए जब कि हमारा तुम्हारा सफर साथ साथ था आखिरी स्टेशन तक .... और एक झटका लगा, रेल ठकड़- ठकड़- ठकड़- ठकड़ कर मुझे ले आगे चल दी और तुमसे दूर, बहुत दूर, कोशों दूर मन.. एक रेलवे स्टेशन की ओर
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नियति को कुछ भी मंजूर हो लेकिन एक दिन तुम मैं जब साथ होंगे .. देह के बंधन से ऊपर .... वही हमारा अंतिम पड़ाव होगा|
डॉ नूतन डिमरी गैरोला
(मौलिक अप्रकाशित )
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इस कहानी को पढ़ कर कुछ देर बैठी ही रह गई संज्ञा शून्य सी ,एक अधूरे रिश्ते को परत दर परत खोलने में कितने सुन्दर शब्दों का समावेश ,एक तरंगिनी के प्रवाह की तरह आगे बढ़ते रहे जैसे दो किनारे साथ तो चल रहे हैं पर कभी मिलन न हो सका वाह बहुत सुन्दर भाव पूर्ण कहानी बहुत बहुत बधाई सखी |
आप सभी मित्रों को जिन्होंने इस कहानी को शब्द दर शब्द पढ़ा .. और उन्हें पसंद ही नहीं अपितु भावना के गुबार मे उनकी आँखों से आंसू भी निकल पड़े .. गले में हुंक सी उठी और जिन्हें लगा कि पीड़ा की यह अंतहीन यात्रा है जिसमें सहयात्री कोई नहीं .... आपका पुनः तहे दिल शुक्रिया ... मुझे खुशी है कि मेरी कहानी आपको पसंद आई और अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने में कामयाब रही .. धन्यवाद कहूँगी OBO को भी जहाँ साहित्य के प्रति गहरी रुचि रखने वाले सदस्य हैं ... और जहाँ सीखने सिखाने का मंच है ...
आदरणीय सौरभ जी! शुक्रिया ... शब्दों के मोती और हार जो टिप्पणियों के रूप मिलते हैं ... वाकई ये हार बेमिसाल हैं और अपने मे ही एक सुन्दर कहानी... इन शब्दों से आप हमें अनुग्रहित करते रहेंगे ... सादर
आदरणीय विजय निकोर ... जरूर ... आगे भी मैं लिखती रहूंगी... आप सबकी हौसला अफज़ाई मुझे लिखने के लिए प्रेरित करती है ... आपका शुक्रिया
आदरणीय विजय मिश्र जी... आपका सादर आभार ..
सरिता के भरे-पूरे लदे-फदे दीखते संसृत जीवन में एक चिर कुँवारी धारा चुपचाप अबाध निस्सृत रहती है जो सदा-सदा अनछुई जीती चली जाती है.. .. किसी उस तीसरे किनारे की निर्निमेष प्रतीक्षा में जो हो कर भी कहीं नहीं होता...
एक झील.. तो एक गाछ.. या कहीं का अव्यक्त शिला खण्ड.. या ऐसा ही कोई.. इन दोनों इकाइयों से अपने-अपने हिसाब से चुपचाप बतियाते रहते हैं.. अनवरत.. . और दोनों चुपचाप सुनते रहते हैं .. ताउम्र.. अनथक उम्मीदों के सहारे.. देह की परधियों को नकारते.. .
बधाई
आदरणीया नूतन जी:
सर्वप्रथम आपको बधाई, अतिशय बधाई।
भावनाओं की इतनी प्रचुर वर्षा ! प्रत्येक वाक्य को पढ़ते गले में हूक-सी होती है ... आपको भी तो इसे लिखना आसान न हुआ होगा !
आप इतना अच्छा लिखती हैं, मन करता है आपका ऐसा ही लेखन पढ़ने को और मिले, और शीघ्र मिले।
पुन: बधाई, और अनेकानेक शुभकामनाएँ।
सादर,
विजय निकोर
अरुण शर्मा अनन्त जी... सादर शुक्रिया ... आपने मन से पढ़ा ..आपका आभार
आदरणीया आपकी यह रचना पढ़कर आँखें गीली हो गईं, अचानक से धड़कने बढ़ गई एक अजीब सी बेचैनी ह्रदय में समावेश हो गई. ट्रेन बैठने के बाद क्या क्या आभास होता है वो सब आपने बहुत ही सुन्दरता से दर्शाया है और उसपर प्रेम का यह अधूरापन दर्द में लिपटे हुए बीते लम्हों की दास्तान अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है. हार्दिक बधाई स्वीकारें.
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