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सूखी हुई है आज मगर इक नदी है तू
मैं जानता हूँ रेत के नीचे दबी है तू
मरना है एक दिन ये नई बात भी नहीं
जी लूँ ऐ ज़िंदगी तुझे जितनी बची है तू
आँखों को चुभ रही है अभी तेरी रौशनी
काँटा समझ रहा था मगर फुलझड़ी है तू
ऐ मौत कोई दूसरा दरवाजा खटखटा
आवाज़ मेरे दर पे ही क्यों दे रही है तू
हर बार ये लगा है तुझे जानता हूँ मैं
महसूस भी हुआ है कभी अजनबी है तू
आज़ाद हो रही हैं ये शह्रों की लड़कियाँ
खूँटे से गाँव में तो अभी तक बँधी है तू
साबित किया है तूने सुलह कर के बारहा
हर बार मैं ग़लत हूँ हमेशा सही है तू
* मौलिक एवं अप्रकाशित.
Comment
आदरणीया दीपाली ठाकुर जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिती और सराहना के लिए ह्रदय तल से आपका आभारी हूँ.
भाई जवाहर लाल सिंह जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिती और सराहना के लिए ह्रदय तल से आपका आभारी हूँ.
आदरणीय सालिक गणवीर साहब, सभी शेर एक से बढ़कर एक हुए है. बधाई स्वीकारें!
आदरणीय अमीरूद्दीन 'अमीर' साहिब
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिती और सराहना के लिए ह्रदय तल से आपका आभारी हूँ.
आदरणीय सालिक गणवीर जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।
प्रिय भाई आशीष यादव जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिती और सराहना के लिए ह्रदय तल से आपका आभारी हूँ.
आदरणीय सालिक गणवीर सर, ख़ूबसूरत ग़ज़ल पर बधाई स्वीकार कीजिए।
आ. सालिक गणवीर जी,
नया शेर बहुत कमाल हुआ है. पुनः बधाई
भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिती और सराहना के लिए ह्रदय तल से आपका आभारी हूँ.
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