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राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी को समर्पित ,

 

ये रचना लगभग २५ बर्ष पूर्व लिखी गयी ,
जो आज भी प्रासंगिक है |


मुझे घर ले चलो बापू ,

या खुद आ जाओ ,


वाह| आज क्या मौसम , क्या फ़िज़ा ,
हर ओर आतंकबाद , भ्रष्टाचार की हवा ,
इंसानियत , सख्शियत अब हो गयी खता ,
क्या ये , हम सब एक हैं , होने की सज़ा ,
क्या राजघाट पर सिर्फ़ फूल चढ़ाना काफ़ी है ,

फट चुका बहुत पोस्टर ,

और दस्तक मत दिलवाओ ,
मुझे घर ले चलो बापू ,
या खुद आ जाओ ,

वनों मे अतिक्रमण की काली आँधी ,
जैसे थ्रेचर * की जीत ,
फिर घिर उठे बादल , चार के चौदह ,
धूल हे बस धूल , बारिश नहीं ,
सूखी धरा , हो गयी बुढ़िया नानी ,
हर ओर हो रहा , हाहाकार ,
बाँस वन हूँ मैं ,
मुझे व्यावहारिक मत बनाओ ,
मुझे घर ले चलो बापू ,
या खुद आ जाओ ,

मौत की बैचैनी से खदबदाता मुकाम ,
क्या दिया हे, राजनीति ने हमें ,
अब कहाँ - कहाँ ढूँढे दशानन , कहाँ- कहाँ मनाएँ दशहरा ,
अब तो धूप भी पहाड़ों से उतर आई है ,
तिनके - तिनके बीन कर दिया जला रहा हूँ मैं ,
क्योकि , रोशनी के जश्न की ज़िद थी मुझे ,
थक चुका हूँ बहुत ,
अब और समन्व्य सेतु मत बनाओ ,
मुझे घर ले चलो बापू ,
या खुद आ जाओ ,


किनारे तोड़ रही नदी , अपनी ही लहरों से ,
समय साक्षात्कार कर रहे , अनचाहे लोग ,
दीवारों से झाँकता , भयभीत भविष्य
भूत के आदर्श के , चिथड़े - चिथड़े , कर रहा वर्तमान ,
अपनी पहचान , ज़रूरी हो चली राष्ट्र की पहचान से ,
सह चुका हूँ बहुत ,
अब मील का पत्थर बनाओ ,
मुझे घर ले चलो बापू ,
या खुद आ जाओ ,


मुझे घर ले चलो बापू ,
या खुद आ जाओ ,


अश्क

* मारग्रेट थ्रेचर , ब्रिटिश प्रधानमंत्री , को श्रेय जाता हे , वो जबरदस्त बहुमत
से सत्ता में वापस आयीं थी , अपना ही पुराना रेकॉर्ड ध्वस्त कर |
रचना उसी काल की है , अत: सन्दर्भ डाला गया हे .


मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by Vindu Babu on April 16, 2013 at 10:47pm
आदरणीय कात्याल जी रचना 25 साल पुरानी भले हो पर वर्तमान के संदर्भ में अत्यन्त प्रासंगिक है।
सादर बधाई स्वीकारें।
Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on April 16, 2013 at 6:05pm

बड़ी ही गहरी अभिव्यक्ति .............इसके बिम्ब अब ज्यादा प्रभावी जान पड़ते हैं 

सादर बधाई हो आपको 

Comment by राजेश 'मृदु' on April 16, 2013 at 6:01pm

इस संवेदनशील रचना पर ढेरों बधाई, सादर

Comment by Arun Sri on April 16, 2013 at 1:04pm

बहुत बढ़िया ! सशक्त ! वाह !

Comment by Yogi Saraswat on April 16, 2013 at 11:05am

मौत की बैचैनी से खदबदाता मुकाम ,
क्या दिया हे, राजनीति ने हमें ,
अब कहाँ - कहाँ ढूँढे दशानन , कहाँ- कहाँ मनाएँ दशहरा ,
अब तो धूप भी पहाड़ों से उतर आई है ,
तिनके - तिनके बीन कर दिया जला रहा हूँ मैं ,
क्योकि , रोशनी के जश्न की ज़िद थी मुझे ,
थक चुका हूँ बहुत ,
अब और समन्व्य सेतु मत बनाओ ,
मुझे घर ले चलो बापू ,
या खुद आ जाओ ,

सही कहा आपने अश्क साब , ये रचना , ये शब्द आज भी प्रासंगिक हैं !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 16, 2013 at 9:50am

आदरणीय अशोक जी 

सार्थक प्रासंगिक अभिव्यक्ति 

भूत के आदर्श के , चिथड़े - चिथड़े , कर रहा वर्तमान ,
अपनी पहचान , ज़रूरी हो चली राष्ट्र की पहचान से ,......इस एक कारण नें कितनी समस्याओं को जन्म दिया है 

हार्दिक बधाई इस अभिव्यक्ति पर.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 16, 2013 at 9:37am

२५ वर्ष पूर्व लिखी गई रचना आज भी सामयिक है, कथ्य खुल के आ रहे हैं, बधाई आदरणीय अश्क जी । 

Comment by coontee mukerji on April 15, 2013 at 11:02pm

अश्क जी , बहुत ही दमदार रचना है .बधाई .सादर  कुंती

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 15, 2013 at 10:59pm

सुन्दर रचना.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 15, 2013 at 7:54pm

25 वर्ष पूर्व लिखी सुन्दर रचना आज भी प्रासंगिक है | बधाई श्री अशोक कात्याल "अश्क" भाई 

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