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गज़ल - राहों में दीवारें हैं - पूनम शुक्ला

2222. 222

बजती क्यों झंकारें हैं
जब सजती तलवारें हैं

मुँह पर ताले ऐसे क्यों
अब उठती ललकारें हैं

आँखों में देखो पानी
उफ इतनी मनुहारें हैं

कब बदलेगी ये झुग्गी
हाँ बदली सरकारें हैं

काँटे ही काँटे हैं बस
राहों में दीवारें हैं

बहना इतना मुश्किल क्यों
दिखती बस मझधारें हैं ।
पूनम शुक्ला
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on November 10, 2013 at 9:46pm

वाह वाह ... बधाई 

Comment by ram shiromani pathak on November 10, 2013 at 7:55pm

बहुत ही  सुन्दर  ग़ज़ल   हुई   है  आदरणीया  पूनम जी …बहुत बहुत बधाई आपको। ..सादर 

Comment by vijay nikore on November 10, 2013 at 2:00pm

इस अच्छी गज़ल के लिए बधाई, आदरणीया पूनम जी।

 

सादर,

विजय निकोर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on November 10, 2013 at 9:59am

छोटी बहार की सुन्दर ग़ज़ल.बधाई....

आदरणीया प्राची जी के कथन से सहमत हूँ. मेरे विचार में भी झंकार,मँझधार अपने बहुवचन में यथावत रहते है,

Comment by Sushil.Joshi on November 9, 2013 at 8:33pm

इस सुंदर गज़ल हेतु बधाई आ0 पूनम जी....

Comment by annapurna bajpai on November 9, 2013 at 2:00pm

आ0 पूनम जी छोटी बहर मे सुंदर गजल , बधाई आपको । 

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 9, 2013 at 1:26pm

आदरणीया पूनम जी बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने बधाई स्वीकारें


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 9, 2013 at 11:49am

आदरणीया पूनम जी , छोटी बह्र मे आपने बहुत लाजवाब गज़ल कही है !!! आपको बहुत बधाई !!!! आदरणीया राजेश जी का सही कहना है  पांचवे शेर मे तकाबुले रदीफ का दोष है !!!!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 9, 2013 at 10:09am

छोटी बहर पर सुन्दर ग़ज़ल 

एक संशय है ...क्या झंकार, मनुहार, मझधार शब्दों का बहुवचन झंकारें,मनुहारें , मझधारें लिया जाता है ..या फिर ये शब्द इसी प्रारूप में बहुवचन के लिए भी प्रयुक्त किये जाते हैं?


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 8, 2013 at 10:42pm

बस काँटे ही काँटे हैं-----तकाबुले रदीफ़ दोष बन रहा है-----काँटे ही काँटे हैं बस---- कर लीजिये 
राहों में दीवारें हैं---- 

छोटी बहर पर सुन्दर ग़ज़ल लिखी है दाद कबूलें 

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