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अख़बारों की बातें छोड़ो कोई ग़ज़ल कहो (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

अख़बारों की बातें छोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

ख़ुद को थोड़ा और निचोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

वक़्त चुनावों का है, उमड़ा नफ़रत का दर्या

बाँध प्रेम का फौरन जोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

हम सबके भीतर सोई जो मानवता उसको

कस कर पकड़ो और झिंझोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

खर पतवार जहाँ है दिल के उन सब कोनों को

अपने तर्कों से तुम गोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

आग उगलने लगी सियासत जलते हैं मासूम
मिल जुलकर इसका मुँह तोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

सच लेकर तुम पूँजी, सत्ता से टकराओगे?

‘सज्जन’ जी अपना रुख मोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 7, 2019 at 12:59pm

आदरणीय फूल सिंह जी, राज़ नवादवी जी, तेज वीर सिंह जी, समर कबीर साहब, लक्ष्मण धामी जी, आप सबने इस रचना पर प्रतिक्रिया देकर मेरा हौसला बढ़ाया इसलिये मैं तह-ए-दिल से आप सबका शुक्रगुजार हूँ। आदरणीय समर साहब इन दिनों गर्दन में समस्या होने के कारण कम्प्यूटर पर कम ही बैठना होता है पर सक्रियता बनाये रखने की पूरी कोशिश रहेगी। धन्यवाद

Comment by PHOOL SINGH on December 13, 2018 at 4:54pm

बहुत सुंदर रचना,  हार्दिक बधाई 

Comment by राज़ नवादवी on December 10, 2018 at 1:46pm

आदरणीय धर्मेंद्र कुमार जी, आदाब, सुंदर गजल हुयी है, हार्दिक बधाई. सादर. 

Comment by TEJ VEER SINGH on December 9, 2018 at 12:33pm

हार्दिक बधाई आदरणीय धर्मेंद्र कुमार जी।बेहतरीन गज़ल।

आग उगलने लगी सियासत जलते हैं मासूम
मिल जुलकर इसका मुँह तोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

Comment by Samar kabeer on December 9, 2018 at 10:46am

जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी आदाब,बहुत दिनों बाद पटल पर आपको देखकर प्रसन्नता हुई,अपनी सक्रियता बनाये रखें ।

अच्छी ग़ज़ल कही आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 8, 2018 at 8:51pm

आ. भाई धर्मेंद्र जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।

कृपया ध्यान दे...

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