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आपका आभार आदरणीया अर्चना जी।
ओ बी ओ लघुकथा गोष्ठी - ६० में सहभागिता हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। आपकी लघुकथा अति उत्तम है।बेहद कुशलता से आपने इसे रचना बद्ध किया है।यह आपकी लेखन शैली का कमाल है। ये अंखुए शब्द मैंने पहली बार सुना।कृपया परिभाषित करेंगे।
आपका दिली आभार आदरणीय तेजवीर जी। हां,कुशलता नहीं;कुशलता की तलाश का यह महज एक प्रयास हो सकता मेरा।आगे,बीज जब गुंफित होता है,फूटता है,तो अंखुए निकलते हैं।उसी पतझड़ के उपरांत तरू की फुनगियों में कोंपल फूटने लगती।उसकी प्रारंभिक स्थिति में अंखुए निकलते हैं,सादर।
प्रदत्त विषय पर अच्छी समसामयिक लघुकथा कही है आपने आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
आपका आभार आदरणीय महेंद्र जी।
बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय मनन सरजी।
आदाब। सांकेतिक शैली में वर्तमान परिदृश्य को बढ़िया संदेश के साथ शाब्दिक किया है आपने। हार्दिक बधाई जनाब मनन कुमार सिंह साहिब। सामान्य पाठक शैली समझने में कठिनाई महसूस कर सकते हैं।
असली धरोहर - लघुकथा -
"सुनो जी, आज अपनी गुड्डी चार साल की हो गयी।वह सुबह से आज जलेबी खाने की जिद कर रही है। अपनी सहेलियों को भी जन्मदिन पर जलेबी खिलाना चाहती है।"
"सुमन, तुम तो जानती हो शहर के हालात।काम धंधा सब बंद है।घर में फूटी कौड़ी भी नहीं है।"
"लेकिन उस छोटी बच्ची को कैसे समझाऊं कि घर में जहर खाने को भी पैसे नहीं है।"
"सुमन, बड़ी मुश्किल से लाला से एक एक किलो दाल चावल उधार माँग कर लाया हूँ।"
"सुनो जी, एक बात बताओ, तुमने इस देश के लिये इतने पदक जीते। बदले में क्या मिला? सरकार एक छोटी सी नौकरी भी नहीं दे सकी।"
अचानक श्रीधर को जैसे कुछ याद आया, वह मंदिर वाले आले में से एक छोटी सी सुनहरे कपड़े की थैली उठाकर बाहर निकल गया।
सुमन आश्चर्य से उसे पीछे से पुकारती रही। मगर वह उसकी आवाज़ को अनसुनी करके चला गया।सुमन घर की देहरी पर खड़ी उसे जाते हुए बेबस सी देखती रही।
दिन ढले श्रीधर लौटा।दोनों हाथों में खाने के सामान थे।एक बड़े से डिब्बे में ढेर सारी गरमा गरम जलेबियाँ थीं।
"यह सब सामान कैसे मिला?"
"पहले गुड्डी और उसकी सहेलियों को गरमा गरम जलेबी खिलाओ।फिर पूछना यह सब।"
गुड्डी और उसकी सारी सहेलियाँ जन्मदिन को उत्सव की तरह खुशी खुशी मनाने में लग गयीं।मगर सुमन अभी भी इसी उधेड़्बुन में उलझी थी कि आखिर इतने पैसे ये कहाँ से लाये।
मन पर नियंत्रण नहीं हुआ तो उसने फिर वही सवाल दाग दिया,"बताओ ना, यह सब कैसे हुआ?"
"यह तुम्हारे ही कारण हुआ।
"क्या मतलब?"
"जैसे ही तुमने मुझे मेरे पदकों की याद दिलायी। बस सब संभव हो गया।"
"तो क्या तुमने पदक बेच दिये?"
"नहीं गिरवी रख दिये।"
"हाय राम, यह क्या गज़ब कर दिया तुमने, वही पदक तो इस घर में एक ऐसी धरोहर थे जिसे तुम सबको बड़े गर्व से दिखाते थे।"
"अरे पगली, उधर देख, गुड्डी के चेहरे पर जो खुशी है इस वक्त, वह मेरे लिये दुनियाँ की सबसे बड़ी धरोहर है।"
मौलिक,अप्रसारित एवम अप्रकाशित
आपकी कथा में पिता का निश्चल स्नेह परिलक्षित हो रहा हैं।संतान की ख़ुशियों के चिन्ह माता पिता के लियेकिसी अमूल्य धरोहर से कम नही होते।हार्दिक बधाई आ. तेज बहादुर सिंह जी
हार्दिक आभार आदरणीय अर्चना त्रिपाठी जी।
समसामयिक विषय को आधार बनाकर दिए गए विषय को परिभाषित करने का अच्छा प्रयास किया है। खिलाड़ियों के प्रति सरकार की उदासीनता को भी निशाना बनाने का अच्छा प्रयास किया गया है। कथानक तो अच्छा है परंतु पदक बेचने के कथ्य को तथ्य का कुशन मिलता प्रतीत नहीं होता। /तुम तो जानती हो शहर के हालात/ संभवत: आपका संकेश लॉकडान की ओर है, यदि मैं ठीक समझ रहा हूँ तो। यदि लॉकडान है तो पदक किसको बेचा और सामान जलेबी कहॉं से आई? लघुकथा की विश्वसनीयता पर थोड़ा प्रश्नचहिन लगा रहे हैं। सादर
रवि भाई, लेखक ने लॉक डाउन का जिक्र नहीं किया है, चुकी आज के हालत हम पर हावी है इसलिए वहां से जोड़ रहे हैं. शहर के हालात ठीक नहीं होना, कई चीज हो सकता है।
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