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"पापा, अब तो आप नहीं जाओगे ना?, बेटा पिता को पकड़े हुए कह रहा था, साल भर बाद उसने पिता को देखा था.
उसके सामने पिछले सात दिन का खौफनाक मंजर छा गया, कभी पैदल, कभी ट्रक में, कभी किसी टेम्पो में चलते हुए बस वह आ गया था. उसके एक दो साथी तो रास्ते में ही चल बसे थे.
उसने पत्नी की तरफ देखा, जिसकी आँखें मानो कह रही थीं "तुम बस सलामत रहो, दो वक़्त की रोटी तो हम खा ही लेंगे".
उसने अपने भविष्य की चिंता को झटकते हुए कहा "अब मैं कहीं नहीं जाऊँगा बेटा, यहीं रहूँगा, तुम्हारे पास".
बेटा खुश होकर उससे चिपट गया, उसने पत्नी को भी हाथ बढ़ाकर अपने पास खींच लिया.
बेदर्द शहर ने एक और कर्मवीर खो दिया.


मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by विनय कुमार on May 26, 2020 at 12:06pm

इस टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ रक्षिता सिंह जी

Comment by रक्षिता सिंह on May 24, 2020 at 3:36pm

आदरणीय विनय जी, नमस्कार बहुत ही सुंदर लघुकथा ... बहुत बहुत बधाई !

Comment by विनय कुमार on May 21, 2020 at 4:58pm

इस टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ समर कबीर साहब

Comment by Samar kabeer on May 21, 2020 at 2:31pm

जनाब विनय कुमार जी आदाब, अच्छी लघुकथा है, बधाई स्वीकार करें ।

Comment by विनय कुमार on May 20, 2020 at 12:27pm

इस सकारात्मक और उत्साह बढ़ाने वाली टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ तेज वीर सिंह जी

Comment by विनय कुमार on May 20, 2020 at 12:27pm

इस सकारात्मक और उत्साह बढ़ाने वाली टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ प्रतिभा पांडे जी

Comment by TEJ VEER SINGH on May 20, 2020 at 11:49am

हार्दिक बधाई आदरणीय विनय जी। बेहतरीन सम सामयिक लघुकथा।जो लोग इस त्रासदी को झेल रहे हैं या झेल चुके हैं वे अगली दो तीन पीढ़ी तक इसे भूल नहीं पायेंगे।शहर की ओर आने का सपना भी नहीं देखेंगे।

Comment by pratibha pande on May 20, 2020 at 11:42am

वाह .. मजदूरों के पलायन का सामयिक विषय लेकर चलती रचना को अंतिम पंक्ति ने बहुत ऊँचाई दे दी। आज इन कर्मवीरों को बोझ और भीड़ समझने वाली मानसिकता कल अवश्य अपने फैसलों पर पछतायगी। बधाई आदरणीय विनय जी।

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