अनजाने से .....
मैं
व्यस्त रही
अपने बिम्ब में
तुम्हारे बिम्ब को
तराशने में
तुम
व्यस्त रहे
स्वप्न बिम्बों में
अपना स्वप्न
तराशने में
हम
व्यस्त रहे
इक दूसरे में
इक दूसरे को
तलाशने में
वक्त उतरता रहा
धूप के सायों की तरह
मन की दीवारों से
हम के आवरण से निकल
मैं और तू
रह गए कहीं
अधूरी कहानी के
अपूर्ण से
अफ़साने में
हम
फिर बन जाते हैं
अजनबी
अपनी अपनी मैं के दम्भ को जीते हुए
हम के अवगुंठन में
अनजाने से
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन । सुन्दर रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय बृजेश कुमार 'ब्रज' जी, सृजन के भावों को आत्मीय मान से अलंकृत करने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय narendrasinh chauhan जी, सृजन के भावों को आत्मीय मान से अलंकृत करने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया ।
khub sundar rachna sir
एक और बोलती कविता के लिए बधाई आदरणीय सुशील जी...
"आदरणीय Samar kabeer जी, सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का आभारी है
जनाब सुशील सरना जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
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