परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 130वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब इब्न-ए-इंशा
साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"एक हमीं हुशियार थे यारो एक हमीं बद-नाम हुए "
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फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फा
बह्र: मुतदारिक मुसम्मन् मक्तुअ मुदायफ महजूफ
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 23 अप्रैल दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 24 अप्रैल दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आ. भाई आज़ी तमाम जी, अभिवादन। खूबसूरत गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
कुछ असआरों में छोटेमोटे बदलाव सुझाए हैं विचार करें । सादर...
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एक हमीं को मिली न मंज़िल एक हमीं गुमनाम हुए
छुपते छुपते छुप नहीं पायीं इश्क़ महब्बत की बातें
रोज़ -ब-रोज़ उसी को अपना कहकर ख़ुश हो लेते थे
/चाँद को पाने की हसरत तो औरों ने भी की थी पर
सहृदय शुक्रिया आदरणीय धामी सर
आपके सुझाव बेहद पसंद आये आभार
लेकिन एक सुझाव "चाँद को पाने की हसरत तो में त के बाद तो अटक सा रहा है देखियेगा सर
सादर
जी, सही फरमाया आपने। "तो" को "यूँ" कर सकते हैं। सादर..
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इश्क़ में खिलते खिलते कितने तन्हा दिल गुलफाम हुए
एक हमको ही मिली न मंज़िल एक हमीं गुमनाम हुए
छुपते छुपते छुप नहीं पायीं इश्क़ महब्बत की बातें
दीवानेपन के अफ़साने देखो कितने आम हुए
उन मज़हब की दीवारों को तोड़ न पाये दीवाने
जिन दीवारों के माने बस नफ़रत के पैगाम हुए
रोज़ के रोज़ उसी को अपना कहकर ख़ुश हो लेते थे
जिसकी याद में डूबे डूबे चमकीले दिन शाम हुए
यूँ ही जीते जीते इक दिन एक तमन्ना जाग उठी
मत पूछो दीवाने दिल के फ़िर क्या क्या अंजाम हुए
यूँ तो चाँद को पाने की हसरत औरों ने भी की थी
एक हमीं हुशियार थे यारो एक हमीं बद-नाम हुए
रोज़ ही देखा करते थे जिस चाँद को छूने के सपने
उसको छू कर भी यारो हम छू न सके नाकाम हुए
दिल को रोज़ सताता है अब रुस्वाई का ये आलम
जाने किस की पाई सज़ा की रोज़ नये इल्ज़ाम हुए
लड़ते लड़ते लड़ कर भी ना इच्छाओं से जीत सके
बुझते बुझते बुझ कर यूँ ही "आज़ी" आज़ तमाम हुए
आदरणीय आज़ी जी
बहुत खूब ग़ज़ल हुई
बधाई स्वीकार करें।
सादर।
सहृदय शुक्रिया आदरणीय रिचा जी
हौसला अफ़ज़ाई व सराहना के लिये आभार
सादर
भाई आजी तमाम, आदाब, तमाम ग़ज़ल में क्रियाओं का दुहराव ग़ज़ल की मूल उद्भावना के विरुद्ध है ! कहने की आवश्यकता नहीं ग़ज़ल का मूल स्वरूप तात्पर्य और तकनीक दोनों में ही विविधता की माँग करता है! अन्यथा ग़ज़ल उबाऊ हो जाती है, एकरसता के होते, इति !
सादर प्रणाम जनाब चेतन जी
शायद आपने ग़ज़ल ठीक से पढ़ी नहीं टिप्पणी देने से पूर्व
मैंने कोई जानबूझकर जबरदस्ती क्रियाओं का दुहराव नहीं किया है
ग़ज़ल आपको उबाऊ लगी इसके लिये सहृदय धन्यवाद
वैसे कहने की जरूरत तो नहीं है पर आपकी लगभग सभी ग़ज़लें उबाऊ होती हैं
आजी तमाम, भाई, आप ने मेरी राय पर बिना सोचे समझ े ग़लत बयानी की है, मैंने कब कहा कि आप की ग़ज़ल उबाऊ है! और, शास्त्रीय आधार पर आपको ख़तरे से आगाह मात्र किया है! रहा, मेरी ग़ज़ल का प्रश्न, प्रश्नगत समझ रखते क्या आप पाओगे, कोई भी जान सकता है ! इति !
जी आदरनीय सादर
आज़ी तमाम जी आदाब, तरही मिसरे पर बहुत ही उम्दः ग़ज़ल हुई बहुत बधाई ।
शुक्रिया आदरणीय नीलेश जी
हौसला अफ़ज़ाई व सराहना के लिए सहृदय आभार
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