आदरणीय साथियो,
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शुक्रिया। दरअसल मेरी टिप्पणी में 'बढ़िया शैली' से मेरा आशय 'व्यंग्य ध्वनि/शैली' ही था। मेरे विचार से कुछ पाठकों को सम्प्रेषण में परेशानी हो सकती है। कहीं कुछ तो अस्पष्टता या अस्वाभाविकता लगती है मुझे।
चरमराता विश्वास
“क्या ताज सिर्फ प्रेमी ही बनाएगा प्रेमिका के लिए? नहीं, मेरे बच्चे भी बनाएंगे मेरे लिए।” इमारत न सही, मेरे प्यार, बलिदान को तो समझेंगे ही। ऐसा सोचने के साथ ही मानवी की हँसी निकल गई। पास ही टी वी देखती उसकी 20 साल की बेटी सुगंधा ने पूछ लिया।
“ मां क्यों हँस रही हो?”
“ कुछ नहीं,” और खुद ही झेंप भी गई। सच में बहुत मुश्किल था, शराबी और नकारा पति को छोड चार साल के राहुल और दो साल की सुगंधा के साथ जीने का फ़ैसला करना,वो भी ऐसे समाज में जहां अकेली स्त्री हर किसी की जागीर और चर्चा का विषय होती है।सबकी सुनते, ताने सहते, गंदी नज़रों से बचते, राहुल को अफ़सर और सुगंधा को नर्स बना मां होने का धर्म निभाया ।बच्चों के भविष्य को बनाने के लिए बीस साल अपने अरमानों का गला घोटा था । हर सुबह घर ,बाहर के काम करने के लिए मशीन बन तैयार हो जाती थी। उसे विश्वास था कि वह दोनों भी उसके त्याग और फर्ज पर गर्व करते होंगें।
"अरे,बोलो भी...क्या सोचकर हँस रही हो?"सुंगधा ने दुबारा पूछा ।
“ मैंने जिम्मेदारी का निर्वाह ठीक से तो किया न”? मानवी पूछ ही बैठी।
सुगंधा न सवालिया लहजे में पूछा, “हमें पालने की? वोह तो हर माँ करती है”।
राहुल ने हंस कर कहा, “माँ, हम नहीं होते तो तुम्हारा जीना मुश्किल हो जाता”।
और.. दोनों ज़ोर से हँस पड़े।
मानवी की मायूस आंखें ख्वाब के ताज को गिरता देखती रह गईं।
मौलिक व अप्रकाशित
स्वरचित
रचना निर्मल
बहुत ही मर्मस्पर्शी लघुकथा रची है रचना निर्मल जी। पूरी ज़िंदगी अपने बच्चों के लिए संघर्ष करती माँ का विश्वास किस तरह तोड़ा गया, उसका बहुत ही सुंदरता से चित्रण किया है। इस बढ़िया लघुकथा हेतु मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें।
आदरणीय योगराज प्रभाकर सर, नमस्कार। आपके इन शब्दों से मेरी क़लम को बहुत बल मिला।आपकी हार्दिक आभारी हूँ।
आदाब। यह भी एक उम्दा बढ़िया रचना। हार्दिक बधाई आदरणीया रचना भाटिया 'निर्मल' जी। शीर्षक बेहतर हो सकता था। मुझे सूझ रहे हैं : /मन का ताज/, /ढहता ताज/, /निर्वाह/.... जैसा कोई शीर्षक।
आदरणीय शेख़ शाहज़ाद उस्मानी जी आदाब। आदरणीय, आपने बहुत ख़ूब शीर्षक सुझाए।"ढहता ताज" बहुत अच्छा है। हार्दिक धन्यवाद।
आ. रचना बहन, सादर अभिवादन। अच्छी लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।
--धागा --
निर्णय उनके पक्ष में हुआ है ये सोचकर दोनों पक्षों के वकील बहुत खुश थे । जिस ख़ास मित्र को लगता था हमें अलग हो जाना चाहिए वो भी बड़ी खुश किन्तु हम दोनों के माता -पिता के आँखों में मिश्र भाव थे ,उन्हें समझ नहीं आ रहा था की बच्चों के मुक्ति की खुशी मनाए या कि अकेले हो जाने का दुःख ।
मैं तो शुन्य में खो गया और स्वाति ? नहीं नहीं अब "वो" विमनस्क अवस्था में बैठी थी ।
कभी मेरी बुरी आर्थिक स्थिति और उसकी अस्वस्थतता में हम दोनों एक साथ खड़े हुआ करते थे आज एक दूसरे के सामने खड़े थे .किसी समय उसने मेरी आँखों में सपने देखे थे वो आज नजर चुराने कि जुगत में थी ।
"------------"
मैंने अपने माता-पिता उसके आई-बाबा को विनती कि आप आगे निकालिए मैं स्वाति को आधे घंटे में छोड़ दूंगा .
एक क्षण को वो हड़बड़ाई फिर अपने आप को काबू में कर आई -बाबा को आँखों से निकलने का इशारा किया ।
"चलो आखरी बार एक कप कॉफी साथ पीते है ।" मैंने अनुरोध के स्वर में कहा
वो कुछ असहजता से मेरे साथ चल दी ।
ड्राइव कर हमेशा कि कॉफी वाली शॉप पर आ गए . अपने हमेशा के विवाह पूर्व के डेटिंग वाले टेबल पर बैठते हुए उसने .." बधाई ! तुम जो चाहते थे वो तुम्हें मिल गया "
"नहीं! तुम जीत गयी तुमनें डायवोर्स हासिल कर लिया ।"
" अलग होकर मैं कहाँ जीत पायी सौम्य !"
"----" मैं खामोश "
"कौन जीता पता नहीं पर हमारी "सौम्या" हार गयी , उसने बहुत कुछ खो दिया ."
मुझे भी महसूस हुआ बहुत कुछ गलतिया हुई हम दोनों कि तरफ से , पर अब कैलेंडर के बहुत से पन्ने पलट गए थे , घड़ी बहुत आगे खिसक गयी थी .
बैरा टेबल पर मेरी पसंदिता कैपेचीनो और उसके पसंद कि एस्प्रेसो कॉफी के साथ साथ गुलाब के फूलो से सजा फूलदान भी रखा गया था .बैरे की तरफ देखते मैंने मन में ही कहाँ था "नादान"
कॉफी के घुट भरते- भरते हम दोनों कहीं खो गए थे . खाली कप निचे रखते हुई महसूस हुआ की दोनों कि बायी हथेली एक दूसरे पर...
हाथ हटा दोनों खड़े हुऐ .आँखे भरी हुई थी . दोनों एक साथ बोल पड़े "सौम्या"..
रिश्ता टूटा था पर विश्वास का धागा अभी भी बाकी था ।
मौलिक व अप्रकाशित
रिश्ता भले टूट गया मगर विश्वास क़ायम रहा। अच्छी लघुकथा है आ० नयना ताई। इसके संप्रेषण पर थोड़ी मेहनत और करें तो लघुकथा और निखरेगी। टंकण त्रुटियों पर ख़ास ध्यान देने की आवश्यकता है। बहरहाल मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
आदरणीय योगराज भाइ
सादर अभिवादन। लंबे अर्से के बाद आयोजन में आपकी उपस्थिति ने मुझे व्यव्सायिक व्यतता (आज अन्तिम तिथी) मे भी लिखने को प्रेरित किया और थोडा स समय चुराकर मै रचना लिख गयी. निसन्देह ये अभी बहुत काम और सम्पादन, वर्तनी सुधार मांगती है. मै जल्द ही इन सब त्रुटियों मे सुधर करती हू.
उत्सह वर्धन के लिये आपका धन्यवाद
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