आदरणीय साथियो,
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आदरणीय लघुकथा भेजने के लिए कृपया ईमेल दीजिए
हार्दिक आभार
अनिता कपूर
anitakapoor.us@gmail.com
आदाब। हार्दिक स्वागत आदरणीया डॉ. अनीता कपूर साहिबा। मेरे जानकारी अनुसार लघुकथाका केवल यहाँ उपरोक्त Reply to this बॉक्स में टाईप कर या कॉपी पेस्ट कर प्रेषित की जाती है। ईमेल हेतु आदरणीय मंच संचालक (श्री योगराज प्रभाकर) जी के ब्लॉग प्रोफाइल पर जाना होगा।
जहाँ अपने ये कमेंट दिया है वहीँ लघुकथा पोस्ट करनी है महोदया.
जी धन्यवाद
कबीर - लघुकथा -
"रहीम काका, आज सुबह सुबह पांच बजे कहाँ की तैयारी है?”
राजू ने रिक्शे को साफ़ करते करते बेमतलब का सवाल कर दिया।
रहीम काका बिना कुछ कहे सुने रिक्शे में बैठ गये,"चल बेटा, जल्दी चल।”
"कहाँ चलना है काका?”
"सेंट्रल जेल।”
"जेल क्यों ?”
"आज सुबह मेरे बेटे कबीर को फाँसी दी जा रही है।”
"पर काका, आपने तो शादी ही नहीं की थी, फिर ये बेटा कहाँ से आ गया?”
"ये लड़का मुझे लावारिस हालत में मिला था। मैंने बहुत खोज बीन की, लेकिन कुछ पता नहीं चला। पुलिस और प्रशासन की सलाह पर मैंने इसे गोद ले लिया।”
"लेकिन काका हमने तो उसे कभी आपके साथ देखा भी नहीं।”
"बेटा सब नसीब के खेल हैं।मैं अकेला उसकी कैसे परवरिश करता।इसलिये मैंने उसे अपनी बहिन के पास छोड़ दिया।बाद में तालीम के वास्ते दिल्ली होस्टल में दाखिल करा दिया।”
"अब ये फाँसी का क्या माजरा है?”
"अब क्या बताऊँ बेटा। सारा कसूर मेरा ही है।”
"वह कैसे?"
“मुझे उसका नाम कबीर नहीं रखना चाहिये था।वह हिन्दू है।”
"काका, आपने फाँसी की वजह तो बताई नहीं।”
"बेटा किसी ने उसका नाम दिल्ली के दंगों के मुजरिमों में लिखा दिया।जबकि उस वक्त वह अपनी खाला के घर गया हुआ था।”
"लेकिन काका, दिल्ली के दंगों के वक्त वह आपकी बहिन के यहाँ गया हुआ था।फ़िर कैसे सजा हो गयी?”
"यही तो हमारी बद नसीबी है कि हम इस बात को साबित नहीं कर सके। क़ानून तो अंधा होता है।”
"काका, मुझे लगता है कि आपकी कोशिश में कमी रह गयी।”
"बेटा, दबी जुबान में मेरे सगे वाले भी कुछ ऐसा ही कह रहे हैं।”
"वे लोग क्या बोल रहे हैं?”
"यही कि उनका सगा बेटा थोड़े ही था जो अपनी जान जोखिम में डालते। लेकिन बेटा ऊपर वाला जानता है कि मैंने कबीर के लिये क्या नहीं किया।पानी की तरह पैसा बहाया। बड़े से बड़ा वकील किया।”
"काका, फिर कमी कहाँ रह गयी?”
"बेटा, हक़ीक़त यही है कि नक्कारखाने में तूती की आवाज़ किसी को नहीं सुनाई पड़ती।"
मौलिक एवं अप्रकाशित
सादर नमस्कार। जी, ऐसा ही तो बहुत से प्रकरणों में हो रहा है। बढ़िया शैली में प्रवाहमय रचना में ज्वलंत मुद्दों के बीच संतान विषयक मानवता पर विमर्श व चिंतन कराती लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय तेजवीर सिंह जी। शीर्षक कोई अन्य होता, तो?
जनाब, आप पंच पंक्ति की बात कर रहे हैं, मैं उसे उद्धृत करता हूँ, पढ़िए, " बेटा हकीकत यही है कि नक्कारखाने में तूती की आवाज किसी को नहीं सुनाई पड़ती।" एक धर्म / पंथ निरपेक्ष संवैधानिक व्यवस्था को नक्कारखाना बताना / अथवा उसका रूपक देना क्या संदेश देता है, कोई स्थिर मस्तिष्क का व्यक्ति समझ सकता है, कहने की आवश्यकता नहीं।
हार्दिक आभार आदरणीय शेख़ शहज़ाद जी। आप लघुकथा के मर्म तक पहुँच पाये।मुझे ख़ुशी हुई।
शुभ प्रभात, तेजवीर सिंह जी, आपकी, लघुकथा मुझे,मुआफ करें, श्रीहीन लगी ! प्रस्तुति न केवल लघुकथा के स्वरूप के विरुद्ध है बल्कि, आदरणीय, अस्वाभाविक, अनावश्यक घुमाव लिए और यथार्थ की कसौटी पर खरी नहीं उतरती ।भारतीय न्यायालय विश्व के सर्वश्रेष्ठ न्यायालय माने जाते हैं। और, भारत में फाँसी की सजा न के बराबर और वो भी निकृष्टतम आपराधिक मामलों में दी जाती है। Rarest of rare cases ( विरल से भी विरल मामलों ) / विरलतम का यही अभिप्राय है। अफसोस आप साहित्य में भी हिन्दू / मुस्लिम कर लघुकथा नामक विधा का मान गिराते प्रतीत होते हैं।
आदरणीय तेजवीर भाई जी,लघुकथा के लिए बधाई। हां,यहां नकारात्मकता कुछ ज्यादा ही हावी हुई लगती है।'शिव जी का धनुष किसने तोड़ा होगा,तो मंगरुआ ने ही',ऐसा हमेशा सच नहीं होता न। फिलवक्त बधाइयां।
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