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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-168

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 168 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है ।

इस बार का मिसरा जनाब 'साहिर' लुधियानवीसाहिब की ग़ज़ल से लिया गया है |

'क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम'

मफ़ऊल फ़ाईलात मुफ़ाईल फ़ाईलुन

221   2121   1221   212 

बह्र-ए-मुज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ

रदीफ़ --से हम 

क़ाफ़िया:-(अर की तुक)
जिधर, इधर,उधर,डर आदि...

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 27 जून दिन गुरूवार को हो जाएगी और दिनांक 28 जून दिन शुक्रवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

"OBO लाइव तरही मुशायरे" के सम्बन्ध मे पूछताछ

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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के पिछ्ले अंकों को पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक...

मंच संचालक

जनाब समर कबीर 

(वरिष्ठ सदस्य)

ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

जी बहुत बहुत शुक्रिया आ बारीकी से ग़ज़ल पर इस्लाह के लिए सुधार करने की कोशिश करता हूँ

आदरणीय Aazi जी नमस्कार

अच्छी ग़ज़ल कही आपने बधाई स्वीकार कीजिये 

अमीर जी की बताई गई बारीकियों से भी सहमत हूँ 

ग़ज़ल में निखार आ जाएगा 

सादर

जी बहुत बहुत शुक्रिया आ हौसला अफ़ज़ाई के लिए

आदरणीय  Aazi Tamaam  जी, अच्छी ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें।

सुधार-

वाक़िफ़ हुए हैं जब से ज़माने के शर से हम १

डरने लगे हैं कितने निकलने में घर से हम

 

अपनी ख़ता नहीं ये मुक़द्दर का खेल है २

उस ओर ग़म के साये थे गुज़रे जिधर से हम

ऐ मेरी जान इश्क़ क़यामत से कम नहीं ३

बर्बाद हो के निकले हैं दिल के नगर से हम

दुनिया की फ़िक़्र है न हमें अपनी कुछ ख़बर ४

जब से हुए हैं रू-ब-रू दर्द-ए-जिगर से हम

ढलते निकलते रहते हैं सूरज के साथ साथ ५

आधे अधूरे लगते हैं शाम-ओ-सहर से हम

ये हम भी चाहते हैं कि ग़म की सहर हो अब ६

उकता गए हैं रात के लंबे सफ़र से हम

जंगल मिटा के घर तो बनाते गए मगर ७

लिखते गये तबाहियाँ अपने हुनर से हम

रूठी हुई है हमसे जब अपनी ही ज़िंदगी ८

क्यों चाहें फिर शिफ़ा किसी भी चारागर से हम

डरते हैं याद करने से मंज़र जुदाई का ९

रहते हैं अपने आप से कुछ बे-ख़बर से हम

हर शख़्स को मिली है अगर अपनी मेरी जाँ १०

"क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम"

दुश्मन भी ख़ूब ज़ख़्म भी आज़ी तमाम हैं ११

लेकिन कहाँ डरे हैं किसी शय के डर से हम

जनाब Aazi Tamaam जी

वाक़िफ़ हुए हैं जब से ज़माने के शर से हम १

डरने लगे हैं कितने निकलने में घर से हम
डर डर के तब से यार निकलते हैं घर से हम

अपनी ख़ता नहीं ये मुक़द्दर का खेल है २
उस ओर ग़म के साये थे गुज़रे जिधर से हम
साये मिले हैं दर्द के गुज़रे जिधर से हम

ऐ मेरी जान इश्क़ क़यामत से कम नहीं ३
बर्बाद हो के निकले हैं दिल के नगर से हम
महबूब मेरे इश्क़ क़ियामत से कम नहीं ३

दुनिया की फ़िक़्र है न हमें अपनी कुछ ख़बर ४
जब से हुए हैं रू-ब-रू दर्द-ए-जिगर से हम
९ वें शे'र के सानी को इस्ति'अमाल करके मतला भी बन सकता है -
रहते हैं अपने आप से कुछ  बे-ख़बर से हम
जब से हुए हैं रू-ब-रू दर्द-ए-जिगर से हम

ढलते निकलते रहते हैं सूरज के साथ साथ ५
आधे अधूरे लगते हैं शाम-ओ-सहर से हम
उक्ता गए हैं गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर से हम

ये हम भी चाहते हैं कि ग़म की सहर हो अब ६
उकता गए हैं रात के लंबे सफ़र से हम

बस आरज़ू यही है कि इस की सहर हो अब
तंग आ चुके हैं रात के  ग़मगीं  सफ़र से हम

जंगल मिटा के घर तो बनाते रहे मगर ७
लिखते गए तबाहियाँ अपने हुनर से हम

रूठी  हुई  है  हमसे हमारी  ही  ज़िंदगी ८
क्यों चाहें फिर शिफ़ा किसी भी चारागर से हम

डरते हैं याद करने से मंज़र जुदाई का ९
रहते हैं अपने आप से यूँ  बे-ख़बर से हम

हर शख़्स को मिली है यहाँ अपनी दोस्तो १०
"क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम"
हर शख़्स को मिली है यहाँ अपनी दोस्तो
हर शख़्स को अता  हुई है अपनी/जब ये दोस्तो

दुश्मन भी ख़ूब ज़ख़्म भी आज़ी तमाम हैं ११
लेकिन कहाँ डरे हैं किसी शय के डर से हम
शब्दों की सजावट और बिहतर तरीक़े से करें 

               //शुभकामनाएँ //

बहुत बहुत शुक्रिया आ ग़ज़ल पर बारीकी से काम करने के लिए 🙏🙏🙏

आदरणीय आज़ी जी, अच्छी ग़ज़ल हुई। बधाई स्वीकार करें। चर्चा भी अच्छी हुई। 

बहुत बहुत शुक्रिया आ हौसला अफ़ज़ाई का

जनाब आज़ी तमाम जी आदाब, तरही मिसरे पर ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, लेकिन ग़ज़ल अभी समय चाहती है, गुणीजन के सुझावों पर ध्यान दें, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें।

कुछ मिसरों में अच्छे सुधार किए हैं आपने,कुछ अभी समय चाहते हैं ।

सादर प्रणाम 🙏गुरु जी

सहृदय शुक्रिया आ गुरु जी ग़ज़ल तक आने व हौसला अफ़ज़ाई के लिए 

अगर ये पता चल जाता किस किस मिसरें में सुधार की आवश्यकता है तो आसानी होती सुधार करने में

सभी गुणीजनों की बेहतरीन इस्लाह के बाद अंतिम सुधार के साथ पेश ए ख़िदमत है ग़ज़ल-

वाक़िफ़ हुए हैं जब से ज़माने के शर से हम १

डर डर के तब से यार निकलते हैं घर से हम

अपनी ख़ता नहीं ये मुक़द्दर का खेल है २

साये मिले हैं दर्द के गुज़रे जिधर से हम

महबूब मेरे इश्क़ क़ियामत से कम नहीं ३

बर्बाद हो के निकले हैं दिल के नगर से हम

दुनिया की फ़िक़्र है न हमें अपनी कुछ ख़बर ४

जब से हुए हैं रू-ब-रू दर्द-ए-जिगर से हम

ढलते निकलते रहते हैं सूरज के साथ साथ ५

उक्ता गए हैं गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर से हम

बस आरज़ू यही है कि इस की सहर हो अब

तंग आ चुके हैं रात के  ग़मगीं  सफ़र से हम

जंगल मिटा के घर तो बनाते रहे मगर ७

लिखते गए तबाहियाँ अपने हुनर से हम

रूठी  हुई  है  हमसे हमारी  ही  ज़िंदगी ८

क्यों चाहें फिर शिफ़ा किसी भी चारागर से हम

डरते हैं याद करने से मंज़र जुदाई का ९

रहते हैं अपने आप से यूँ बे-ख़बर से हम

हर शख़्स को मिली है यहाँ अपनी दोस्तो १०

"क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम"

दुश्मन भी ख़ूब ज़ख़्म भी आज़ी तमाम हैं ११

बुजदिल नहीं जो छोड़ दें मैदान डर से हम

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