परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 184 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का मिसरा वरिष्ठ शायर ख़ुमार बाराबंकवी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है।
तरही मिसरा है:
“इक बेवफ़ा का अहद-ए-वफ़ा याद आ गया”
बह्र 221, 2121, 1221, 212 मफ़ऊलु फ़ायलात्, मफ़ाईलु, फ़ायलुन् है।
रदीफ़ है ‘’याद आ गया’’ और क़ाफ़िया है ‘’आ की मात्रा’’
क़ाफ़िया के कुछ उदाहरण हैं, अदा, खुदा, पता, नया, हुआ, दुखा, खरा आदि
उदाहरण के रूप में, मूल ग़ज़ल यथावत दी जा रही है।
मूल ग़ज़ल यह है:
मुझ को शिकस्त-ए-दिल का मज़ा याद आ गया
तुम क्यूँ उदास हो गए क्या याद आ गया
कहने को ज़िंदगी थी बहुत मुख़्तसर मगर
कुछ यूँ बसर हुई कि ख़ुदा याद आ गया
वाइ'ज़ सलाम ले कि चला मय-कदे को मैं
फ़िरदौस-ए-गुमशुदा का पता याद आ गया
बरसे बग़ैर ही जो घटा घिर के खुल गई
इक बेवफ़ा का अहद-ए-वफ़ा याद आ गया
माँगेंगे अब दुआ कि उसे भूल जाएँ हम
लेकिन जो वो ब-वक़्त-ए-दुआ याद आ गया
हैरत है तुम को देख के मस्जिद में ऐ 'ख़ुमार'
क्या बात हो गई जो ख़ुदा याद आ गया
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 25 अक्टूबर दिन शनिवार के प्रारंभ को हो जाएगी और दिनांक 26 अक्तूबर दिन रविवार के समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
"OBO लाइव तरही मुशायरे" के सम्बन्ध मे पूछताछ
फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 25 अक्टूबर दिन शनिवार लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो www.openbooksonline.comपर जाकर प्रथम बार sign upकर लें.
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के पिछ्ले अंकों को पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक...
मंच संचालक
तिलक राज कपूर
(वरिष्ठ सदस्य)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
Tags:
हमको नगर में गाँव खुला याद आ गया
मानो स्वयं का भूला पता याद आ गया।१।
*
तम से घिरे थे लोग दिवस ढल गया कहीं
हमको चराग सुबह बुझा याद आ गया।२।
*
मंजिल मिली तो रोज ही फूलों की सेज थी
फिर भी सफर में शूल चुभा याद आ गया।३।
*
हँसने के वक्त आप ने ओढ़ी उदासियाँ
रुँधता हमें किसी का गला याद आ गया।४।
*
देखा सफेद रंग जो फूलों का बाग में
बच्चे को हाथ दूध जला याद आ गया।५।
*
कोसा करे थे खूब जो इबादत की रीत को
गर्दिश के दौर उनको खुदा याद आ गया।६।
*
मुद्दत के बाद उसने किया फिर से राम राम
लगता है कोई काम नया याद आ गया।७।
गिरह-
होना था जो भी हो के रहा कह के क्या करें
“इक बेवफ़ा का अहद-ए-वफ़ा याद आ गया”
*
*
मौलिक/अप्रकाशित
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, आपकी ग़जल इस बार कुछ कमजोर महसूस हो रही है। हो सकता है मैं गलत हूँ पर आप कृपया एक बार स्वयं भी चेक कर लें तो बेहतर होगा। जो कुछ मैंने लिखा वो सद्भावना है। आलोचना न समझे। सादर।
आदरणीय मनजीत कौर जी, मतले के ऊला में खुशबू, उसकी, हवा, आदि शब्द स्त्री लिंग है। इनके साथ आ गया नहीं आ सकता। जैसे खुशबू आगया या हवा आगया लिखना व्याकरण के अनुसार नहीं है। कुछ और सोच लें। सादर।
221 2121 1221 212
बर्बाद ज़िंदगी का मज़ा हमसे पूछिए
दुश्मन से दोस्ती का मज़ा हमसे पूछिए १
पाते हैं दर्द-ए-दिल में सुकूँ मानिए जनाब
इकतरफ़ा आशिक़ी का मज़ा हमसे पूछिए २
रहते हैं उसके ध्यान में ख़ुश रात दिन हुज़ूर
दिल को मिली ख़ुशी का मज़ा हमसे पूछिए ३
जंगल में याद-ए-यार के भटके तो कह दिया
अब आप बेख़ुदी का मज़ा हमसे पूछिए ४
शिरक़त को आज आप “रिया” आईं ही नहीं
महफ़िल में शाइरी का मज़ा हमसे पूछिए ५
गिरह -
तन्हा जिए न इश्क़ दुबारा कभी हुआ
“अंजाम-ए-आशिक़ी का मज़ा हम से पूछिए”
“मौलिक व अप्रकाशित”
आ. रिचा जी, सादर अभिवादन। यह गजल इस बार के मिसरे पर नहीं है। आपकी तरह पहले दिन मैंने भी अपकी ही तरह का मिसरा नोट कर लिया था और उसपर कुछ शेर लिख लिए थे पर बाद में देखा कि पोस्ट बदल गयी है।
सम्भवतः आपने बाद में बदली गयी पोस्ट नहीं देखी।
आदरणीय रिचा यादव जी, आपने रचना जो पोस्ट की है। वह तरही मिसरा ऐन वक्त बदला गया था जिसमें आपका कोई दोष नहीं है।
ग़ज़ल
जो दे गया है मुझको दग़ा याद आ गया
शब होते ही वो जान ए अदा याद आ गया
कैसे क़रार आए दिल ए बेक़रार को
जो बह्र ए ग़म में छोड़ गया याद आ गया
नाकाम आशिक़ों पे पडी जब मेरी नज़र
इक बेवफ़ा का अहद ए वफ़ा याद आ गया
उनसे हुआ है सामना मुद्दत के बाद जब
उनकी मोहब्बतों का सिला याद आ गया
जब उनसे मेरी गुफ़्तगू तन्हाई में हुई
उनका हर इक शिकवा गिला याद आ गया
लिपटे हुए परिंदों पे जिस दम नज़र पडी
मुझसे किसी ने प्यार किया याद आ गया
यह तज्रबा हुआ मुझे ख़ुशियों की चाह में
क्या था सनम के ग़म में मज़ा याद आ गया
दर दर भटक के पहुँचा हूँ उनकी गली में जब
ना गाह उनके घर का पता याद आ गया
तन्हा ग़मों की रात है उस पर ख़याल ए यार
यूँ ही न मुझको आज ख़ुदा याद आ गया
तस्दीक़ ग़म की रात भी कैसे कटेगी अब
ठुकरा गया जो मेरी वफ़ा याद आ गया
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
आ. भाई तस्दीक अहमद जी, सादर अभिवादन। लम्बे समय बाद आपकी उपस्थिति सुखद है। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
मंच पर नियमित उपस्थिति निवेदित है। सादर..
आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी, तरही मिसरे पर बहुत सुंदर प्रयास है।
शेर नं. 2 के सानी में गया शब्द दो बार आगया है। यह ठीक करे तो अच्छा है।
— जो बह्र ए ग़म में छोड़ गया याद आ गया
शेर नं. 5 के सानी में बह्र का सही निर्वाह नहीं हुआ है। देखिए —
— उनका हर इक शिकवा गिला याद आ गया।
इसी तरह कुछ अन्य त्रुटियां है जिन्हे आप स्वयं चेक कर दुरुस्त कर सकते हे। सादर।
हर सिम्त वो है फैला हुआ याद आ गया
ज़ाहिद को मयकदे में ख़ुदा याद आ गया
इस जगमगाती शह्र की हर शाम है धुआँ
फिर गाँव का वो धुँदलका याद आ गया
दुनिया है बेवफ़ा ये नहीं जानते थे तुम
क्या हो गया कि तुमको सगा याद आ गया
महफ़िल में सुन के सब से मुझे ज़िक्र ए रहज़नी
बे-साख़्ता ही राह नुमा याद आ गया
वादा जो कर के तुम भी न आए तो क्या हुआ
" इक बेवफ़ा का अहद ए वफ़ा याद आ गया"
मौलिक एवं अप्रकाशित
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2025 Created by Admin.
Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |